पहले छोटी सी भूमिका..
कहानी लिखने वाले किस्सागो कुछ अलग होते होंगे. मैं लिखने चलता कहानी हूँ और बन वो कुछ और जाती हैं. लिखते करते हर कोई यही चाहता है कम से कम अपनी कही को दूसरे तक समझा तो सकें और ऐसी ही एक कोशिश तीन साल बाद करने जा रहा हूँ. खुद की उम्र देखता हूँ तो लगता है तब का लिखा क्या होगा. आज भी कई बार मेरी कही पढ़ने वालों तक सही सलामत नही पहुँच पाती. ऐसा नहीं है कि पिछला कहीं कबाड़ में फेंक दिया पर उन अध बनी - अधबुनी कहानियों पर फिर से काम करने का मन नहीं करता..इसे थोड़ा आलस भी कह सकते हैं और अपने उस समय को सुरक्षित रखने की अवचेतन में दबी पड़ी कोई मंशा भी..
अपनी बात को कुछ ऐसे कहूँ तो बात ऐसी सी है कि पता नहीं अपने शुरुवाती दिनों में जब लिखना शुरू कर रहा था तब सब अच्छे तो लगते थे, पर लगते पुराने ही थे. उस समय परसाई, श्रीलाल शुक्ल, शरद जोशी, शंकर पुणताम्बेकर जैसा लिखना सोचना हमेशा अपने ज़यादा पास लगा बजाय प्रेमचंद के पञ्च परमेश्वर के. उन सब लेखकों का समय और मेरा यहाँ होना ही सबसे बड़ा अंतर रहा होगा. यही वजह है जो मुझे यशपाल की परदा आज भी कहानी कम और पता नहीं कौन सा वक्तव्य लगती है. पर ये भी पता है लिख पाना कितना मुश्किल होता है. प्रेमचंद मुझे बड़े भाई साहेब लिखते हुए, हामिद के साथ अच्छे लगते हैं. भीष्म साहनी के साथ अमृतसर आना आज भी दिल के किसी कोने में है. अमरकांत तभी तक पचते हैं जब वे दोपहर का भोजन लिखते हैं, काशीनाथ सिंह भले कैसे भी लेखक हों पर रेहन पर रग्घू में उनका चुक जाना साफ़ दिखता है जबकि अपना मोर्चा आज भी कृति के रूप में ताज़ा लगती है..कुछ आदतों के साथ होता ही ऐसा है जैसे ये वाली, बनाने चलें हैं दलिया पक रही है दाल..
कुछ ज़यादा ही भटक गया हूँ वापस आते है इस कलाकारी पर जो तीन - सवा तीन साल बाद की जा रही है और इस सबको इस कहानी की छोटी सी भूमिका मान लिया जाये जो आपसे कमसे कम एक बार पढ़े जाने की उम्मीद तो करती ही है. साथ ही विनम्र आग्रह है कि इसे घिसेपिटे औजारों से न तौलें बघारें. नए बाँट बटखरें हों, तब कुछ हो सकता है. इसीलिए न पुराने तराजू- जंग लगे- खियाए- सठियाये- खार खाए परचुनियों की ज़रूरत है और न तो ये सफल कहलाएगी न असफल. क्योंकि मुझे खुद नहीं पता ये कहानी है भी या नहीं. कितनी बार शुरू होती है और कितनी बार ख़तम..इसलिए थोडा धैर्य भी चाहती है..
कहानीनुमा शुरू ..
पता नहीं हम दोनों के बीच ऐसा क्या था जो अब नज़र नहीं आता. कहीं गुम हो गया. शायद. जिसे वापस पाने की कोशिश हम दोनों ने ही नहीं की. की होती तो ऐसा जैसा नहीं लगता. आज हम दोनों शायद थोड़े शिफ्ट हो गएँ हैं. हम दोनों जहाँ से शुरू होते थे वहां से शुरू हमारी जिरहें अन्दर की गिरहें खोलती चलती थी. पर अब ऐसा नहीं होता. कई दिनों से. शायद उन सबके जवाब तुमने अकेले पा लिए और मैं पीछे रह गया. छुट गया. हम दोनों का शुरू सफ़र और गाड़ी पंचर..ऐसा नहीं है अब तुम दिखती नहीं हो, पर अब तुममे जब वी मेट की करीना नहीं दिखती. उसका खिलंदड़ नहीं दिखता. न ही कोलगेट वाली चमकती दमकती दंतिकाएँ. उसकी जगह नज़र आती है तुम्हारी दिन पर दिन 'बे-फिगर' होती जा रही बेडौल देह. बत्तीसी अब न मालूम किस बिदेसी लिपिस्टिक के पहरे में बंद रहती है. ऊपर से पता नहीं तुम्हारे 'ड्रेसिंग सेन्स' को क्या होता जा रहा है. जींस पहनोगी वो जो तीन साल पहले फिट आती थी अब नहीं..सलवार समीज क्यों छोड़ दिया पता नहीं. मैंने तो कभी नहीं कहा था. खाना भी तुमने बनाना नहीं सीखा. जब हम दोनों 'मैक डी' साथ जाते थे तब हम दोनों को कम समय मिल पता था.
इसलिए उस दिन हफ्ते में दो बार 'सीसीडी' की कॉफ़ी के साथ मिलना तय हुआ. बातचीत में हम दोनों वही दो तो थे जिन्हें अपनी अ-संस्कारी होती जा रही इस पीढ़ी में अपनी ही संतति सर्वाइवल के सारे पेंच ही तो खोलते कसते थे. उस दिन पता नहीं कैसे हमारी तुम्हारी बात 'प्री-मेरीटिअल सेक्स' पर आई और तुमने सारे लड़कों पर लम्बा चौड़ा लेक्चर सुना दिया जो शायद इस समाज पर तुम्हारे पीएचडी के थीसिस थे. और अगले दिन मुझे चाभी लौटानी पड़ी थी. बिना ताला खोले..मैं आज के पतियों की तरह अपनी होने वाली पत्नी को नहीं पिटूँगा बल्कि उसको बिकसने का सामान अवसर भी दूंगा. और इस बहाने मैं तुम्हारी बात ही तो कर रहा था..तुम्हे पीटा नहीं जायगा. और तुम्हे वो दिन याद है जब मैंने तुमसे कहा था लड़कियां शकल से समझदार नहीं, सुन्दर लगती हैं. और आज के लड़के भी लड़की की शकल ही देखते हैं और तुमने उलटे मुझसे यही सवाल पूछ लिया था..उसका जवाब उस दिन तो नहीं दिया पर आज दिए देता हूँ अगर तुम्हारी शकल पर जाया जाये तो उसमे समझदारी कम, उस सौन्दर्य की पॉपुलर समझ दिखती थी. पहले भी आज भी. पर तुमने कभी माना नहीं.
आज इस खाली से कमरे में मार्च का बनता देखता हूँ तो सांसे भारी और धड़कने तेज़ दौड़ने लगती हैं. हम दोनों उस खालीपन को भरने की कोशिश ही तो कर रहे थे जिसने चारों तरफ से हमें घेर रखा था. घर की चिकचिक से दूर कुछ पल दोनों को एक दूसरे में खो जाने का मौका तो मिलता था. भले इसके लिए मुझे अपने दोस्तों की जेबें खंगालनी पड़ती थी. पर उसका अपना मज़ा था. उनके तकाजे पर तकाजे. बेचारे मेरे कारण अपनी कोचिंग की फीस भी टाइम से नहीं भर पाते थे. पर आज तुम नहीं हो. मैं हूँ. और मेरी फ़िल्मी किसम की तन्हाई है. जिसे जिसे पता नहीं क्या-क्या ख्याल होते आते रहते हैं. एक बार तो कुछ ऐसा आया कि कुछ देर उस ज़मीन पर लोटता पोटता रहता जहाँ पुरुष वर्ग तो अपनी लघु शंका का समाधान कर लेता है पर अपनी स्त्री जाति नहीं कर पाती..
पता नहीं कैसा बिम्ब चुना था अपनी इस मनोदशा के लिए इतने तक होता तो सहन कर भी लेता पर..क्या ज़रूरत थी उसी दिन उसी घड़ी वहां से गुजरने की..?? पर नहीं और ऐसा करते देख मेरी कहानी की नायिका को मुझसे वितृष्णा होती है और उसे मुझसे दूर चले जाने का बहाना भी मिल जाता है. कैसा लगा होगा न कोई व्यक्ति उस जगह अपना मानसिक नियंत्रण खो देता है जहाँ इस तंत्र को सबसे अधिक सक्रिय रहने की ज़रूरत थी..
मिटटी में लथ पथ कपडे सने हुए गंधाते नाक मुंह कोहनी सब जगह. लोग उसे देख रहे हैं, कुछ कर नहीं रहे हैं. सिवाय दया के कुछ प्रवचन और सिरफिरे से लेकर उसकी पूरी वंशावली से सम्बन्ध स्थापित करने के. इन पंचाक्षरी गालियों से क्या यह नहीं ज्ञात होता कि हमारा समाज उस मनोदशा में ही पाया जाता है जिसका ढोंग वह सारे समय सोते जागते करता है और जिसे आप हम दैहिक नैतिकता रक्त शुद्धता जैसी पदावली के नाम से जानते बूझते उलझते रहते हैं. इससे यह भी पता चलता है नायक की रूचि सिर्फ एक बार मरने में नहीं इस प्रक्रिया से बार-बार गुजरने में थी. और जो उसे करीब से जानते थे उन्हें भी पता था ये पहली बार नहीं है. यहाँ सौभाग्य जैसी दैवीय कृपा के चलते से उसके इतने पास कोई नहीं है. इसलिए हमारा परम औदात्य को प्राप्त धैर्यवान पौरुष युक्त नायक निश्चिंत है कि घर जाते ही अपनी दुर्दशा का सारा दोष दिल्ली के बिना ढक्कन वाले किसी पास के गटर पर मढ़ देना है..
हाँ ये ज़रूर है उसे उस दिन सरकारी कार्य कुशलता के चलते कोई ऐसा कोई गटर ऐसा नहीं मिला फिर थक हार तीन घंटे इंतज़ार किया कि अँधेरा तो हो जाये तभी तो किसी गटर का ढक्कन अपने बूते ही हटा दे .वो बात अलग है कि पहले तो सूरज देर में ढला फिर एक बल्ब को निशाना बनाने के बाद जैसे- तैसे उस गली में अँधेरा हुआ भी, पर जब पुरुषार्थ की बारी आई तब यहाँ एक बार फिर कार्य कुशलता भरी पड़ी. हुआ कुछ यूँ कि जैसे ही ढ़क्कन हटा कर नायक लुड़काने लगा तभी विलुप्त प्राय गिद्ध की प्रजाति का एक खाकी वर्दी धारी जो देर से ऐसी ही किसी घात में इसे ही घूर रहा था, वहां धमक पड़ा..(यहाँ ध्यान अवश्य दें कि धैर्य सिर्फ हमारे नायक में ही नही बीस पच्चीस मिनिट इंतज़ार करने वाले उस महापुरुष में भी था जो हमारे नायक का जूझना देख रहा था..)अब इस विकट स्थिति से बचने का एक ही रास्ता था जो पैसे केंद्रीय भण्डार से पांच किलो वाले 'टाइड' को खरीदने खरीदने के लिए उसे दिए गए थे उनकी बलि इस मध्यस्थ को देनी पड़ी.चूँकि समय सात से ज़यादा हो चुका था और पिता जी नामक जीव के आने से पहले घर पहुँचना ही श्रेयकर था इसलिए उसे कोई घबराहट नही हुई. और आप भी घबराईये नहीं हमारे नायक को कुछ नहीं हुआ सिर्फ चार छेह दर्ज़न पुलिसिया गलियां खानी पड़ी और कपाल पर उस ठुल्ले की लाठी पड़ते-पड़ते बची. और पिता जी के लेक्चर से भी बचा वो अलग. इतने शारीरिक - मानसिक श्रम के बाद हमारा धीरोदात्त नायक अब थोड़ा थका-थका सा ज़रूर लग रहा है पर अभी अभी उसकी माता ने उसे हल्दी वाला दूध दिया है और अब चिंता की कोई बात है ही नही, मैं हूँ ना..
और आपके सामान्य ज्ञान के लिए बताता चलूँ यदि आप के भी दिल में यदि ये ख्याल आये तो सीधे 'मुद्रिका' 'बाहरी मुद्रिका' पकड़ रिंग रोड, धौला कुआँ, आत्मा राम सनातन धर्म कॉलेज (ए.आर.एस.डी.) और साउथ कैम्पस के दरवाजे के बीच पड़ते इस स्थल तक पहुच सकते हैं. आपकी नायिका कैसे पहुचेगी इसकी सरदर्दी मेरे खाते की नहीं है..अरे कहाँ देख रहे हो वही गेट जिसके इर्द गिर्द पुरुषों का वर्चस्व और एकाधिकार है जिसके पास जाते ही एक चुरकैन - इसे पढ़ें मूत्रगंध, साभार 'क्याप ', मनोहर श्याम जोशी, पन्ना पता नहीं - आपके मस्तिष्क की शिराओं को नासिका की तरफ सक्रीय कर देती हैं. और हाथ संकेत पाकर रुमाल को जेब से निकालने की प्रक्रिया में होते हैं तब तक पैर गति पकड़ उस विचित्र विकरण प्रभावित क्षेत्र से भाग लेते हैं.
अब समझ बिलकुल नहीं आ रहा कहानी शुरू कहाँ हुए और यहाँ पहुच कैसे गयी. नायक अकेला बैठा कहीं एकालाप कर रहा था तो फिर यहाँ मटमैला दुर्गंधित वातावरण कैसे व्याप्त हो गया लोगों की पगलायीं फब्तियां कैसे आन पड़ी..तो बंधू सखा मेरे - इसमें आप भी हैं जो बगलें झांक रहीं हैं माने आप, वही, स्त्री जाति जिसे कुछ विशेषाधिकारों से वंचित रखने का सामाजिक प्रपंच रचा गया है, और जिनमे से एक उपरोक्त वर्णित है - दो हाईफनों के बाद दोबारा पढ़ें और शांत चित्त धर के तिबारा उवाचें शायद समझ आ जाये.
स्त्रियों..!! आपके पास ऐसे विलक्षण क्षेत्र क्यों नहीं हैं..?? इस विकट समस्या पर प्रकाश हमारे गुरूजी डालते हुए बताते हैं कि इस पुरुष सत्तात्मक समाज ने आपके विरुद्ध सदियों से पॉलिटिक्स ऑफ़ बॉडी का व्योम रचा है आप लोगों को देह की राजनीति में फंसाए रखा. साहित्य की बात करें तो यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है. यहाँ भी आपके इस क्षेत्र का बहुत ही कम वर्णन प्राप्त होता है. श्री लाल शुक्ल ने अपने राग दरबारी में आपके विशेष क्षेत्र की बात ज़रूर की. पर इसे गुणात्मक प्रतिनिधित्त्व तो नहीं कहा जा सकता न. कसप में जोशीजी थोड़ा आगे बढ़ते दिखते भी हैं और राग दरबारी से कहीं आगे की बात करते भी हैं पर इसे भी आये पंद्रह साल से ज़यादा हो चुके हैं. इसलिए यहाँ इन्पले( इन पंक्तियों का लेखक: कॉपी लेफ्ट साभार: हमारे संजीव सर) यह आग्रह आपसे करता है की आप इस स्पेसिअल एरिया की मांग करने के बजाय ऐसी टास्क फ़ोर्स बनाये जो पुरुष वर्चस्व को चुनौती देते हुए पब्लिक डोमेन में अपनी उपस्थिति दर्ज कराएँ.
तो मैं यह भी कह रहा था इतने धैर्य के लिए धन्यवाद और मेरी सहानभूति आपके साथ भी है. अगर इतना लिखा पीछे का मै खुद पढूं तो यकीन के साथ के सकता हूँ के मेरी गिनती या तो असफल कहानीकार के रूप में होगी या उन उत्तर आधुनिक रचनाकारों को उनके सिवाय कोई जल्दी से समझ नहीं सकता. दूसरों को बार बार हिज्जे-हर्फ़ देखने-खोलने पड़ते हैं..उनका लिखा शोएब अख्तर जैसे चुके हुए गेंदबाजों के बाउन्सरों की तरह ही होता है. बस दुःख तो इस बात का है अपन मनोहर श्याम जोशी होने से रहे. उदय प्रकाश वाली एक अदद पीली छतरी वाली भी अपने लिए नहीं खोज पाए. पहले पहल इतने कुछ लिखा भी तो कूड़ाछाप. अच्छा है प्रेमचंद जैसा कुछ नहीं हुआ. वर्ना या तो नायक मेट्रो के आगे आकर अपनी जान दे देता या नायिका यू- टियूब पर अपनी आत्महत्या वाला विडियो अपलोड कर इस निष्ठुर निस्सार प्रेम वाले संसार को अलविदा कहती..नायिका ऐसा क्यूँ करती इस पर विवाद हो सकता है पर चूँकि कहानी अपदस्थ कर दी गयी है इसलिए एक खुली सम्भावना तो कही ही जा सकती है और आप आज के नायक से दिल्ली में नदी छलांग नहीं लगवा सकते.
मतलब न प्रेमचंद रहें हैं, न उनका इस्टाईल. यह ज़माना घर से भाग कर आर्य समाज से लेकर कोर्ट में जाकर शादी करने के विकल्प तो मुहैया करता ही है साथ में इस कॉस्मो मेट्रो पॉलीटिन में 'लिव इन' के सह जीवन जैसे संस्करण भी उपलब्ध हैं. यह जीवन से पलायन का समय नहीं उसके उपभोग का है. यह अंग प्रत्यंग के पूर्ण दोहन का काल जो ठहरा. इस पंक्ति को सहजीवन पर टिपण्णी के रूप में न पढ़ें, इसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकारें. और ऐसे ही हर पंक्ति को जानें बूझें.. मेरे कुछ दुष्ट मित्र मुझे विचारों में तो 'जैनेन्द्र' के पास पाते हैं पर उन्हें अड़ोस पड़ोस 'अज्ञेय' वाला नज़र आता है. इस वाली पंक्ति का कोई भी मायना आप लगाने को स्वतंत्र हैं.
और आखिर में मैं दुबारा प्रकट हो कर यह चेतावनी भी दे ही दूँ कि इन सारे उदगारों को उस प्रेमी के तो कभी न माने जाएँ जिसकी संभावित सांकेतिक प्रेमिका का या तो ब्याह तय हो चुका है और न ही वह यू- टियूब पर विडियो अपलोड करने वाली है और अब उस नायक से न बातचीत में दिलचस्पी लेती है न ही फुचकारने - इसे पुचकारना पढ़ें - में ही दिल लगता है. न ही कोई इसे सच्चाई वच्चाई दिखता आइना वाइना जैसा कुछ माना जाये. और न ही हम इसके होल सोल प्रोप्रयाटर हैं. यह सीधे सीधे अपनी बात कहने का घुमावदार रस्ता है जिसमे नायक अपनी भाषा से जूझता अपनी बात दूसरों तक पहुचना चाहता है..बस इतना ही..और बात पहुंची कि नहीं. भेजे में कुछ घुसा की नहीं..
कहानीनुमा ख़तम..!!
मार्च 31, 2011
मार्च 24, 2011
'यहूदी की लड़की' उर्फ़ प्यार का पोस्टमार्टम
किताबें बतातीं हैं आग़ा हश्र कश्मीरी किसके समकालीन थे पर
आज हम यहाँ उनका तुलनात्मक अध्ययन-विश्लेषण जैसा अकादमिक कर्मकांड नहीं करने जा
रहे हैं. न यह स्थापना ही देने कि कौन किसकी कान आँख से कहाँ की उठक बैठक करते किस मंज़िल पर पाए जाते थे. आज फोकस में सिर्फ यहूदी की लड़की पर.
जब से मैंने इसे ख़तम किया तभी से बहुत कुछ घूमे जा रहें हैं..कहीं पढ़ रखा था कि प्रेम हमें मुक्त करता है उसी से बार-बार टकरा रहा था..मारकस रोमन शहजादा है और राहिल यहूदी सौदागर अज़रा की लड़की. अब दोनों के बीच प्रेम कैसे अंकुरित हो.. इसके लिए मारकस राहिल से एक यहूदी के वेश में मिलता है. मतलब यह कि आग़ा मारकस को मनशिया बनाकर धर्म की भूमिका को रेखांकित करते हैं. मतलब यह कि यहूदी की लड़की मारकस से नहीं उसके यहूदी वेश के चलते ही उसकी तरफ अपना झुकाव महसूस करती है जो बाद में प्रेम का रूप ले लेता है. मतलब यह भी कि अगर मारकस मारकस ही बनकर राहिल से मिलता तो वह कभी उस राहिल के इतना पास आ पाता और अपना इजहारे मोहब्बत कर पाता. मोहब्बत बरस्ते मज़हब आती है.
अगर इसके समाजशास्त्रीय अर्थ की तरफ जाया जाये तो मिलेगा कि यह वह समाज है जहाँ किन्ही दो गैर मज़हबी लोगों का और ऊपर से वे यदि औरत और मर्द हैं तो युद्धक परिस्थितियों के आलावा उनका आमना सामना संभव ही नहीं है. यह भी याद रहे यहाँ एक शोषक है तो दूसरा शोषित. रोमनों का अधिपत्य यहूदियों पर है. यह आज की भी कहानी है आगे की भी रहेगी. व्यापारी इस सन्दर्भ में शुरू से ही अपवाद की श्रेणी में आते हैं. और यहाँ भी राहिल के अब्बा कीमती पत्थरों के सौदागर हैं और उनका लेनदेन यहूदियों से लेकर रोमनों के बीच स्वीकार्य स्थिति में हैं. सनद रहे डैसिया के लिए गले का हार भी यही जनाब बना रहे थे, पर दंड विधान से यह भी मुक्त नहीं है.
खैर, वापस. दोनों का प्यार परवान चढ़ता भी है पर आगे ट्विस्ट हैं. कहते हैं इस बीमारी के संक्रमितों में कोई छुपाव दुराव नहीं होता नहीं होना चाहिए दोनों के बीच संदेह दबे पाँव आना चाहता है भी है. पर मारकस एक रात सबकुछ राहिल को बता देता है. बता देता है उसका मज़हब उसका दीन सब अलग है. वह कहता है उसने कोई धोखा नहीं किया, धोखा तो तब होता जब वह उसे छोड़ किसी दूसरे को प्यार करता..उसने तो सब कुछ साफ़ साफ़ बता दिया. पर नहीं, राहिल को यह सब नागवार गुज़रता है उसके लिए तो इस चेहरे को देखने के लिए वही आँख चाहिए जिसे बुतपरस्ती और कुफ्र की चमक दमक से नफरत हो. जिसमें यहूदी मज़हब और यहूदी यकीन का नूर हो. उन दोनों के बीच तकरीर हो ही रही थी और यहाँ से भाग जाने की योजना बन ही रही थी. जिस्म-ओ-रूह का साथ बनता कि अब्बा अपनी लाडली की खोज खबर लेते लेते वहां पहुँच गए. नाटक है इस लिए इस नाटकीयता पर कोई सवाल नहीं लिए जायेंगे.
यहाँ आग़ा हश्र उस तरफ हमारा ध्यान दिलाते हैं जहाँ मोहब्बत मज़हब से सवालात करती है. दोनों के बीच द्वंद्वात्मक विमर्श के प्रारंभिक बीज हम यहाँ देख सकते हैं.उनके दरमियान आज भी छत्तीस का ही आंकड़ा है. ऐसे किसी भी प्रसंग का हमें उल्लेख इसी कृति में शायद पहली बार इतने स्पेस के साथ और इतने सार्थक प्रश्नों के साथ दर्ज़ हैं. यहाँ यह भी देखने लायक है कि यदि राहिल मारकस/मनशिया के साथ भागने में सफल हो जाती तब दोनों के बीच धरम की क्या भूमिका होती..क्या इसे परे रख कर वे अपने जीवन के कार्यव्यापार को चला पाते..उनकी संतान किस धरम में दीक्षित होती..ऐसा क्या था कि इन सवालों को वहां नहीं उठाया जा सका..शायद उस समय काल में यह संभव ही न हो या इनका जनम ही न हुआ होगा..और सबसे बड़ी बात ये सब आगा हश्र के नहीं मेरे सवाल हैं..अगर ऐसा हुआ होता तो शायद इस नाटक का नाम यहूदी की लड़की नहीं होता..
अब मोर्चा एक खालिस यहूदी अज़रा के हाथ में था जिसके सामने एक धोखेबाज रोमन मारकस और उसके साथ भागने को आतुर बेटी भी गुनहगार थी जो रहम की गुहार लगा रही थी . हम आजतक यही सोचते आ रहे थे - हैं कि हर पिता तंग नजरी में यही सोचता है, उसकी बेटी को फुसलाया जा रहा है. यह उस समय का ही नहीं आज का भी सच है. पर यहाँ अज़रा अपनी बेटी को नाफरमान नाहंजार/बदचलन किरदार वाला कहते हैं..शायद गुस्से में हैं तभी आगे की तकरीर-तहरीर में अज़रा शांतचित होकर सारे कुफ़्र को भूलने को तैयार हो जाते है. उस विधर्मी को हम मज़हब बनाने के लिए अपने दीन का कलमा पढ़कर अपने मज़हब में लेने और अपनी शरियत के मुताबिक अपनी बेटी के साथ निकाह पढ़वाने के लिए तैयार हो जाते हैं. पर प्रेम पाने के लिए स्वांग धरने वाला यहूदी मुहब्बत करने का जुर्माना मज़हब से अदा करना नहीं स्वीकारता. वह हूर और ईमान में - आप इसे कदापि मेरी ज़ुबान न माने यह मारकस कह रहा है जो असमंजस की स्थिति में है - मज़हब को चुनता है.
मज़हब तो उसने चुन लिया अपना ईमान भी सलामत रखा पर मेरा खुराफाती भेजा दौड़ने लगता है उसे जस्टिफाई करने के लोंजिक - विशुद्ध हिंदी में कारण कार्य संबंध जैसा कुछ - ढूंढने लगता है और बड़ी दौड़ धूप के बाद यह ज़ेहन में आता है कि मारकस सिर्फ नाम के लिए मारकस नहीं है, यह रोम का होने वाला शहजादा भी नहीं है क्या..यहाँ फिर वही सवाल घेरने लगते हैं..कि राहिल के साथ भागने वाले को तब अपनी होने वाली सल्तनत की याद नहीं हो आई होगी..जब उस समय वह इसे छोड़ने को तैयार था तब मेरी यह खुराफात बेवजह है. वह राहिल को छोड़ सकता है पर मजहब छोड़ना मुहाल है..
पर दूसरी तरफ सवाल ये भी था क्या मारकस ने यहूदी का वेष धरते वक़्त यह सब नहीं सोचा होगा..जवाब देने के लिए न आग़ा हैं न ही मारकस. पर जब अपने से पूछता हूँ तो यही पता हूँ मैं भी वेष धरता आगे पीछे जैसे किसी सवाल तो ख्याल में आते ही नहीं. तब शायद मैं यही सोचता प्यार मोहब्बत जैसी चीज़ तो इस मज़हब धरम के खाचें में अटेगा ही नहीं, क्या इसके लिए भी इन सब की ज़रूरत पड़ती होगी..अगर मारकस हो कर इतना उलझा होता तब शायद राहिल से कभी मिल ही नहीं पता..प्रेम हमें सहज बनता है, इतनी जटिलताओं से उसका क्या लेना देना..यह उन दोनों के बीच का नितांत व्यक्तिगत मामला है जिसमे किसी का भी हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं. और यह सब मैं आज बिना मारकस हुए भी सोच रहा हूँ और ऐसा ही मानता भी हूँ..
इन सब सवालों जवाबों स्थितियों परिस्थितियों के बावजूद यह नाटक सिर्फ प्रेम के ही इर्दगिर्द नहीं घूमता यहाँ रोमन साम्राज्य एक ऐसे शोषक और सांस्कृतिक अभिजिति कर्ता के रूप में उपस्थित है जिसके लिए उनके अलावा हर कोई शोषित है उसके अस्तित्व में सिर्फ दमन चक्र हैं. वहां धर्मान्धतावाद, सत्ता के अहंकार का चरम है. ब्रूटस को ही नाना फड़नवीस के रूप में विजय तेंदुलकर अपने नाटक घासीराम कोतवाल में लाते हैं. आज जबकि साम्प्रदायिकता अपनी परा चरम सीमा पर पहुच गयी है और सत्ता का दमन चक्र तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है; इस नाटक की उपस्थिति अनिवार्य हो चुकी है.
फिर वहीँ. अब जबकि इतने सवाल मेरे सामने उकडू बैठें हैं और प्रश्नचिन्ह बौखला से गए है मेरी तरफ से ये आख़िरी सवाल यही है कि अगर अज़रा बचपन में ब्रूटस की बेटी को नहीं उठा लाया होता और असल में ही वह उसकी बेटी होती तब क्या होता..क्या ब्रूटस का ह्रदय द्रवित उठता..वह जलता हुआ कड़ाह जिसमे तेल खौल रहा था उसमें न अज़रा को फेंका जाता है न उस राहिल को जो कि अब ब्रूटस की बेटी हो चुकी है. अगर एक पल के लिए मान लिया जाये की अज़रा को उस जालिम ब्रूटस का यह अतीत पता था और उसने यहाँ झूठ बोल दोनों की जान ही नहीं बचायी अपितु रोम के गद्दीनशीं होने वाले शहजादे के साथ अपनी बेटी के निकाह को भी अवश्यम्भावी बना दिया..
मुझे कहीं न कहीं लगता है इन सबसे आग़ा हश्र कश्मीरी भी अपनी तरह से जूझ रहे थे और उस समय प्रेम जैसी दुर्लभ हो चुकी मानवीय भावना को दुबारा अमानवीय हो चुके समाज के सामने लाते हैं. बताते हैं एक यह भी कुछ होता है जिससे हम सब बहुत दूर जा चुके हैं. यही एक तत्व है जो हमें फिर से जोड़ सकता है.उस साम्प्रदायिक होते जरे परिदृश्य में ऐसे किसी नाटक को लिखना और उस लोकप्रिय संरचना में इसे ढालने की काबिलियत किसी किसी में ही होती है और आग़ा हश्र कश्मीरी उनमे से एक थे..
वे देख चुके थे हम सब धर्म के बाड़ों में कैद किये जा रहे हैं जिसके फलस्वरुप कम से कम एक स्वस्थ्य समाज का निर्माण नहीं हो सकता..उस समय कितने इन मायनों को देख पाए समझ पाए कह नहीं सकते पर आज इस दो हज़ार ग्यारह के मार्च चौबीस को बैठे मेरी गुज़ारिश है अगर इस नाटक को पढ़ नहीं सकते तो एक बार साल पचपन में बनी बिमल रॉय की फिल्म यहूदी तो देख ही सकते हैं..
बात प्रासंगिकता जैसे किसी प्रमाद की न भी करेंगे जैसा उस दिन राकेश कर रहे
थे तो भी आज इस दो हज़ार ग्यारह में बैठा एक पाठक अगर इस नाटक को पढ़ता है
तो उसके भेजे में सत्तर-अस्सी पन्ने बाद सिर्फ एक अदद सीधी साधी लव स्टोरी
जैसा कुछ समझ में आएगा. उससे ज़यादा की उम्मीद रक्खी भी नहीं जाएगी. कुछ
गणितज्ञ टाइप का हुआ तो प्रेम त्रिकोण दिख पड़ेगा. और इसमें कुछ गलत भी नहीं
है, उलटे शाबाशी देनी चाहिए कि उसने इस प्रायोजित रूचि निर्माण काल में पढ़ा
तो..कभी कभी मैं खुद को इस कटघरे में पाता हूँ. हमें इस समय ने इस लायक
छोड़ा ही कहाँ गया है कि हम खुद अपने रुचियों को चुन सकें. वे पीवीआर के
पोपकोर्न की तरह कीमत अदा करने पर हमारे सुपुर्द कर दी गयीं हैं. देखो खाओ
कूड़ा बनो - बनाए जाओ. देख रहा हूँ फोकस बदल रहा है पर क्या करूँ, यह एक
प्रकार का दृष्टि दोष है जिससे मैं खुद को ग्रस्त पाता हूँ ..आदतन
मजबूर..चलो इस रूचि अभिजिति वाले पाठ को फिर कभी उठाएंगे, अभी वापस चलते
हैं..
जब से मैंने इसे ख़तम किया तभी से बहुत कुछ घूमे जा रहें हैं..कहीं पढ़ रखा था कि प्रेम हमें मुक्त करता है उसी से बार-बार टकरा रहा था..मारकस रोमन शहजादा है और राहिल यहूदी सौदागर अज़रा की लड़की. अब दोनों के बीच प्रेम कैसे अंकुरित हो.. इसके लिए मारकस राहिल से एक यहूदी के वेश में मिलता है. मतलब यह कि आग़ा मारकस को मनशिया बनाकर धर्म की भूमिका को रेखांकित करते हैं. मतलब यह कि यहूदी की लड़की मारकस से नहीं उसके यहूदी वेश के चलते ही उसकी तरफ अपना झुकाव महसूस करती है जो बाद में प्रेम का रूप ले लेता है. मतलब यह भी कि अगर मारकस मारकस ही बनकर राहिल से मिलता तो वह कभी उस राहिल के इतना पास आ पाता और अपना इजहारे मोहब्बत कर पाता. मोहब्बत बरस्ते मज़हब आती है.
अगर इसके समाजशास्त्रीय अर्थ की तरफ जाया जाये तो मिलेगा कि यह वह समाज है जहाँ किन्ही दो गैर मज़हबी लोगों का और ऊपर से वे यदि औरत और मर्द हैं तो युद्धक परिस्थितियों के आलावा उनका आमना सामना संभव ही नहीं है. यह भी याद रहे यहाँ एक शोषक है तो दूसरा शोषित. रोमनों का अधिपत्य यहूदियों पर है. यह आज की भी कहानी है आगे की भी रहेगी. व्यापारी इस सन्दर्भ में शुरू से ही अपवाद की श्रेणी में आते हैं. और यहाँ भी राहिल के अब्बा कीमती पत्थरों के सौदागर हैं और उनका लेनदेन यहूदियों से लेकर रोमनों के बीच स्वीकार्य स्थिति में हैं. सनद रहे डैसिया के लिए गले का हार भी यही जनाब बना रहे थे, पर दंड विधान से यह भी मुक्त नहीं है.
खैर, वापस. दोनों का प्यार परवान चढ़ता भी है पर आगे ट्विस्ट हैं. कहते हैं इस बीमारी के संक्रमितों में कोई छुपाव दुराव नहीं होता नहीं होना चाहिए दोनों के बीच संदेह दबे पाँव आना चाहता है भी है. पर मारकस एक रात सबकुछ राहिल को बता देता है. बता देता है उसका मज़हब उसका दीन सब अलग है. वह कहता है उसने कोई धोखा नहीं किया, धोखा तो तब होता जब वह उसे छोड़ किसी दूसरे को प्यार करता..उसने तो सब कुछ साफ़ साफ़ बता दिया. पर नहीं, राहिल को यह सब नागवार गुज़रता है उसके लिए तो इस चेहरे को देखने के लिए वही आँख चाहिए जिसे बुतपरस्ती और कुफ्र की चमक दमक से नफरत हो. जिसमें यहूदी मज़हब और यहूदी यकीन का नूर हो. उन दोनों के बीच तकरीर हो ही रही थी और यहाँ से भाग जाने की योजना बन ही रही थी. जिस्म-ओ-रूह का साथ बनता कि अब्बा अपनी लाडली की खोज खबर लेते लेते वहां पहुँच गए. नाटक है इस लिए इस नाटकीयता पर कोई सवाल नहीं लिए जायेंगे.
यहाँ आग़ा हश्र उस तरफ हमारा ध्यान दिलाते हैं जहाँ मोहब्बत मज़हब से सवालात करती है. दोनों के बीच द्वंद्वात्मक विमर्श के प्रारंभिक बीज हम यहाँ देख सकते हैं.उनके दरमियान आज भी छत्तीस का ही आंकड़ा है. ऐसे किसी भी प्रसंग का हमें उल्लेख इसी कृति में शायद पहली बार इतने स्पेस के साथ और इतने सार्थक प्रश्नों के साथ दर्ज़ हैं. यहाँ यह भी देखने लायक है कि यदि राहिल मारकस/मनशिया के साथ भागने में सफल हो जाती तब दोनों के बीच धरम की क्या भूमिका होती..क्या इसे परे रख कर वे अपने जीवन के कार्यव्यापार को चला पाते..उनकी संतान किस धरम में दीक्षित होती..ऐसा क्या था कि इन सवालों को वहां नहीं उठाया जा सका..शायद उस समय काल में यह संभव ही न हो या इनका जनम ही न हुआ होगा..और सबसे बड़ी बात ये सब आगा हश्र के नहीं मेरे सवाल हैं..अगर ऐसा हुआ होता तो शायद इस नाटक का नाम यहूदी की लड़की नहीं होता..
अब मोर्चा एक खालिस यहूदी अज़रा के हाथ में था जिसके सामने एक धोखेबाज रोमन मारकस और उसके साथ भागने को आतुर बेटी भी गुनहगार थी जो रहम की गुहार लगा रही थी . हम आजतक यही सोचते आ रहे थे - हैं कि हर पिता तंग नजरी में यही सोचता है, उसकी बेटी को फुसलाया जा रहा है. यह उस समय का ही नहीं आज का भी सच है. पर यहाँ अज़रा अपनी बेटी को नाफरमान नाहंजार/बदचलन किरदार वाला कहते हैं..शायद गुस्से में हैं तभी आगे की तकरीर-तहरीर में अज़रा शांतचित होकर सारे कुफ़्र को भूलने को तैयार हो जाते है. उस विधर्मी को हम मज़हब बनाने के लिए अपने दीन का कलमा पढ़कर अपने मज़हब में लेने और अपनी शरियत के मुताबिक अपनी बेटी के साथ निकाह पढ़वाने के लिए तैयार हो जाते हैं. पर प्रेम पाने के लिए स्वांग धरने वाला यहूदी मुहब्बत करने का जुर्माना मज़हब से अदा करना नहीं स्वीकारता. वह हूर और ईमान में - आप इसे कदापि मेरी ज़ुबान न माने यह मारकस कह रहा है जो असमंजस की स्थिति में है - मज़हब को चुनता है.
मज़हब तो उसने चुन लिया अपना ईमान भी सलामत रखा पर मेरा खुराफाती भेजा दौड़ने लगता है उसे जस्टिफाई करने के लोंजिक - विशुद्ध हिंदी में कारण कार्य संबंध जैसा कुछ - ढूंढने लगता है और बड़ी दौड़ धूप के बाद यह ज़ेहन में आता है कि मारकस सिर्फ नाम के लिए मारकस नहीं है, यह रोम का होने वाला शहजादा भी नहीं है क्या..यहाँ फिर वही सवाल घेरने लगते हैं..कि राहिल के साथ भागने वाले को तब अपनी होने वाली सल्तनत की याद नहीं हो आई होगी..जब उस समय वह इसे छोड़ने को तैयार था तब मेरी यह खुराफात बेवजह है. वह राहिल को छोड़ सकता है पर मजहब छोड़ना मुहाल है..
पर दूसरी तरफ सवाल ये भी था क्या मारकस ने यहूदी का वेष धरते वक़्त यह सब नहीं सोचा होगा..जवाब देने के लिए न आग़ा हैं न ही मारकस. पर जब अपने से पूछता हूँ तो यही पता हूँ मैं भी वेष धरता आगे पीछे जैसे किसी सवाल तो ख्याल में आते ही नहीं. तब शायद मैं यही सोचता प्यार मोहब्बत जैसी चीज़ तो इस मज़हब धरम के खाचें में अटेगा ही नहीं, क्या इसके लिए भी इन सब की ज़रूरत पड़ती होगी..अगर मारकस हो कर इतना उलझा होता तब शायद राहिल से कभी मिल ही नहीं पता..प्रेम हमें सहज बनता है, इतनी जटिलताओं से उसका क्या लेना देना..यह उन दोनों के बीच का नितांत व्यक्तिगत मामला है जिसमे किसी का भी हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं. और यह सब मैं आज बिना मारकस हुए भी सोच रहा हूँ और ऐसा ही मानता भी हूँ..
इन सब सवालों जवाबों स्थितियों परिस्थितियों के बावजूद यह नाटक सिर्फ प्रेम के ही इर्दगिर्द नहीं घूमता यहाँ रोमन साम्राज्य एक ऐसे शोषक और सांस्कृतिक अभिजिति कर्ता के रूप में उपस्थित है जिसके लिए उनके अलावा हर कोई शोषित है उसके अस्तित्व में सिर्फ दमन चक्र हैं. वहां धर्मान्धतावाद, सत्ता के अहंकार का चरम है. ब्रूटस को ही नाना फड़नवीस के रूप में विजय तेंदुलकर अपने नाटक घासीराम कोतवाल में लाते हैं. आज जबकि साम्प्रदायिकता अपनी परा चरम सीमा पर पहुच गयी है और सत्ता का दमन चक्र तीव्र से तीव्रतर होता जा रहा है; इस नाटक की उपस्थिति अनिवार्य हो चुकी है.
फिर वहीँ. अब जबकि इतने सवाल मेरे सामने उकडू बैठें हैं और प्रश्नचिन्ह बौखला से गए है मेरी तरफ से ये आख़िरी सवाल यही है कि अगर अज़रा बचपन में ब्रूटस की बेटी को नहीं उठा लाया होता और असल में ही वह उसकी बेटी होती तब क्या होता..क्या ब्रूटस का ह्रदय द्रवित उठता..वह जलता हुआ कड़ाह जिसमे तेल खौल रहा था उसमें न अज़रा को फेंका जाता है न उस राहिल को जो कि अब ब्रूटस की बेटी हो चुकी है. अगर एक पल के लिए मान लिया जाये की अज़रा को उस जालिम ब्रूटस का यह अतीत पता था और उसने यहाँ झूठ बोल दोनों की जान ही नहीं बचायी अपितु रोम के गद्दीनशीं होने वाले शहजादे के साथ अपनी बेटी के निकाह को भी अवश्यम्भावी बना दिया..
मुझे कहीं न कहीं लगता है इन सबसे आग़ा हश्र कश्मीरी भी अपनी तरह से जूझ रहे थे और उस समय प्रेम जैसी दुर्लभ हो चुकी मानवीय भावना को दुबारा अमानवीय हो चुके समाज के सामने लाते हैं. बताते हैं एक यह भी कुछ होता है जिससे हम सब बहुत दूर जा चुके हैं. यही एक तत्व है जो हमें फिर से जोड़ सकता है.उस साम्प्रदायिक होते जरे परिदृश्य में ऐसे किसी नाटक को लिखना और उस लोकप्रिय संरचना में इसे ढालने की काबिलियत किसी किसी में ही होती है और आग़ा हश्र कश्मीरी उनमे से एक थे..
वे देख चुके थे हम सब धर्म के बाड़ों में कैद किये जा रहे हैं जिसके फलस्वरुप कम से कम एक स्वस्थ्य समाज का निर्माण नहीं हो सकता..उस समय कितने इन मायनों को देख पाए समझ पाए कह नहीं सकते पर आज इस दो हज़ार ग्यारह के मार्च चौबीस को बैठे मेरी गुज़ारिश है अगर इस नाटक को पढ़ नहीं सकते तो एक बार साल पचपन में बनी बिमल रॉय की फिल्म यहूदी तो देख ही सकते हैं..
मार्च 23, 2011
जो बहरे थे - जो बहरे हैं उनके लिए
सूचना‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’
“बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊँची आवाज़ की आवश्यकता होती है ", प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वैलियां के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं.
पिछले दस वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने शासन-सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं है और न ही हिन्दुस्तानी पार्लियामेण्ट पुकारी जाने वाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंककर उसका जो अपमान किया है, उसके उदाहरणों को याद दिलाने की आवश्यकता है. यह सब सर्वविदित और स्पष्ट है. आज फिर जब लोग “साइमन कमीशन” से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आँखें फैलाए हैं और कुछ इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं, विदेशी सरकार “सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक” (पब्लिक सेफ़्टी बिल) और “औद्योगिक विवाद विधेयक”(ट्रेड्स डिस्प्यूट्स बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यत्न कर रही हैं. इसके साथ ही आने वाले अधिवेशन में “अखबारों द्वारा राजद्रोह रोकने का क़ानून” (प्रेस सैडिशन एक्ट) लागू करने की धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करने वाले मज़दूर नेताओं की अंधाधुंध गिरफ़्तारियाँ यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैए पर चल रही है.
राष्ट्रीय दमन और अपमान की इस उत्तेजनापूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गंभीरता को महसूस कर “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन” ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है. इस कार्य का प्रयोजन है कि क़ानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाए. विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करें परन्तु उसकी वैधानिकता का नकाब फाड़ देना आवश्यक है.
जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वे इस पार्लियामेण्ट के पाखंड को छोड़कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जायें और जनता को विदेशी दमन औरशोषण के विरुद्ध क्रांति के लिए तैयार करें. हम विदेशी सरकार को यह बता देना चाहते हैं कि हम “सार्वजनिक सुरक्षा” और “औद्योगिक विवाद” के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपतराय की हत्या के विरोध में देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं.
हम हर मनुष्य के जीवन को पवित्र मानते हैं. हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शांति और स्वतंत्रता का अवसर मिल सके. हम इन्सान का ख़ून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परन्तु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ-न-कुछ रक्तपात अनिवार्य है .
इन्क़लाब जिन्दाबाद !
हस्ताक्षर–
बलराज
कमाण्डर-इन-चीफ
एक छोटी सी टिप्पणी टेढ़मरे ब्रैकेट के अन्दर
{तस्वीर में केन्द्रीय असेम्बली और दर्शक दीर्घा . 8अप्रैल, 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने यहीं निर्जन स्थान पर बम फेंका था और उसी दरम्यान बाँटे गए अंग्रेज़ी पर्चे का यह हिन्दी अनुवाद ;यहाँ कुछ पदबंधों कुछ शब्दों को जानबूझ कर बोल्ड और इटैलिक में रखा गया है..जिनका फौरी में कई मायनों के बीच में एक मायना यह लगाया जा सकता है कि सत्ता का चरित्र कभी नहीं बदलता. गोरे हुक्काम गए तो ये काले मुक्कादमों की फ़ौज का देश पर कब्ज़ा हो गया. आप भी अपने अर्थ खोजने के लिए स्वतंत्र हैं..नक्सलवाद से लेकर बिनायक सेन तक. राहुल गाँधी से लेकर हसन अली मलकान गिरी से लेकर विदर्भ. काले धन से लेकर संसाधनों पर कब्जे तक की रेंज में सोचने को लेकर. कम से कम हम एक औपचारिक सैधांतिक लोकतान्त्रिक देश के ज़िम्मेदार नागरिक होने का फ़र्ज़ नहीं निभा सकते क्या. इतनी स्वतंत्रता तो शायद हमें है ही..और ध्यान रहे ये टेढ़मरे ब्रैकेट के अन्दर लिखा जा रहा है }
मार्च 17, 2011
बरस्ते आगा हश्र : कुछ असहज सवाल
आज बात यहूदी की लड़की से पहले
कुछ सवालों की. ये आग़ा हश्र कश्मीरी से शुरू होकर बहुत आगे तक जाते हैं, तो शुरू करें..
इस नाटक की भूमिका लिखते हुए अब्दुल बिस्मिल्लाह कहते हैं:
'..लेकिन यह तो सभी मानते हैं कि आग़ा हस्र उर्दू हिंदी के एक महत्वपूर्ण नाटककार हैं और इससे पहले वे इन्हें शेक्सपियर के समकक्ष खड़ा कर ताकीद कर चुके हैं कि इन दोनों ने ही व्यावसायिक नाटक कंपनियों के लिए नाटक लिखे.और दोनों ही नाटक करों का उच्चस्तरीय साहित्यिक मूल्यांकन हुआ '.
पर ये बात अपन को हजम सी नहीं हुई. ऐसा अपच क्यों हुआ इस पर एक लम्बी चौड़ी तकरीर है..
इस नाटक की भूमिका लिखते हुए अब्दुल बिस्मिल्लाह कहते हैं:
'..लेकिन यह तो सभी मानते हैं कि आग़ा हस्र उर्दू हिंदी के एक महत्वपूर्ण नाटककार हैं और इससे पहले वे इन्हें शेक्सपियर के समकक्ष खड़ा कर ताकीद कर चुके हैं कि इन दोनों ने ही व्यावसायिक नाटक कंपनियों के लिए नाटक लिखे.और दोनों ही नाटक करों का उच्चस्तरीय साहित्यिक मूल्यांकन हुआ '.
पर ये बात अपन को हजम सी नहीं हुई. ऐसा अपच क्यों हुआ इस पर एक लम्बी चौड़ी तकरीर है..
सबसे पहले तो यही कि अगर ऐसा था तो हम इनसे
कभी रु-ब-रु क्यों नहीं हुए,
हमारे मास्टरों ने इनसे तार्रुफ़ क्यों नहीं करवाया. जब जयशंकर प्रसाद और
आग़ा हश्र एक ही समय काल में सक्रीय थे तो हमें प्रसाद ही पढने को क्यों
मिलते हैं. एक सामानांतर धारा का प्रवाह भी तो दिखाई देना चाहिए था पर
नहीं.
हिंदी
साहित्य के बोझिल इतिहासों नें भी प्रसाद पर तो पन्ने रंगे
पर किसी ने यह लिखने की जेहमत है उठाई कि प्रसाद पारसी थियटर से त्रस्त थे
और उसी प्रतिक्रिया जैसी किसी अवस्था में अपने बोझिल से उबाऊ से ऐतिहासिक
नाटकों की श्रृंखला लिखने को अभिशप्त हुए. वहां पाठक को संस्कारित करने का
जिम्मा उनकी कलमतोड़ू लेखनी पर था. उनका नजरिया वही ढाक के तीन पात
पुनुरुथानवादी किस्म का रहा जिसमे वे संस्कृति का शुद्धतम रूप खोजते बीनते
रहे.
और यहीं कहीं प्रसाद फिर से संदेह के घेरे
में आ जाते हैं जिसकी तरफ शायद
ही कभी हमने ध्यान दिया हो और वह ये कि इनके चलते उस पाठक के मानस में उन
तत्कालीन परिस्थितयों में जब हम स्वाधीनता के लिए विदेशी सत्ता से लड़ रहे
थे किस प्रकार के देश की छवि आकार ले रही थी. क्या आपको यह आकृति सन
सैंतालिस के आस पास वाली नहीं लगती..
कुछ इसे विषयांतर कह ख़ारिज करना चाहेंगे पर
हमें पता होना चाहिए ये वही
मानसिकता है जिसने पहले हिंदी को मानक रूप में ढाल कर
उन सारी हिंदियों की भ्रूणहत्या
कर दी, जिनका स्वाभाविक विकास हो
सकता था.. क्या ज़रूरत थी ठेकेदारी
लेकर सबको ठिकाने लगाने की. यह वही अभिजात्य है जिसमे हीराडोम जैसे कहीं
नहीं, उनके लिए कोई जगह नहीं.
एक ऐसी व्यवस्था बनायीं गयी जिसमे
लिखने वाले
पहले से ही कम थे और समझने वालों की तो बिसात ही क्या..?? उस लोकतान्त्रिक
जगह को सील बंद कर उसकी कालाबाज़ारी शुरू कर दी गयी. और इसी दरमियानी में
हिन्दुस्तानी को अपदस्थ करने की पूर्वपीठिका पर काम किया जा चुका था. हमने
देशज-विदेसज-तत्सम-तद्भव-संकर जैसे पद गढ उसका रास्ता हमेशा के लिए बंद कर
दिया था.
मामला जितना भाषाई दिखता है उतना है
नहीं वर्ना ऐसा क्यों
हुआ कि प्रेमचंद तो अनुवाद के बाद भी अपनी हिन्दुस्तानी के बलबूते पर हिंदी
साहित्य में घुसपैठ कर सकने में कामयाब हो जाते हैं पर ऐसा विशेषाधिकार
किसी और को क्यों नहीं मिल सका..मिर्ज़ा हैदी रुसवा, मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार से लेकर आग़ा हश्र, इकबाल, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर
इलाहाबादी तक उसी मध्याम से हमारे सामने आये पर
उन्हें प्रेमचंद जैसी
स्वीकृति न मिलना उस छिपी हुई मानसिकता को उदघाटित करने के लिए काफी है
जहाँ स्वकथित हिंदी भाषी अपने को हिंदी हैं हम, वतन से नहीं मज़हब से
मानने
लगे थे..
और ये सारी घेरेबंदी कहीं आगे की पटकथा
कहती है जहाँ सबसे पहले
भाषा पर अपना अधिपत्य जमा कर ये दर्शाना भी था कि इस पर हमारा एकाधिकार है
और हमी इसके होलसोल प्रोपराईटर हैं. फिर बारी संस्कृति और उसकी परिधि
निर्धारण का था जिसके बाद नंबर आया देश का; जहाँ से आगे की कहानी हम सब
जानते बूझते हैं. सिर्फ धरम ही नहीं उसमे जाति से लेकर पूंजी, वर्ग,
समाज के अधिपत्य की एक-एक कर क्रमबद्ध कोशिशें दिखती हैं. पर साहित्य के नाम
पर इस तरफ कभी देखा ही नहीं गया. समझ नहीं आता जिसमे अपने को छोड़ सब
हाशिये पर कर दिया गया था वह कैसा 'सा-हित्य' था - है..??
यह सारे विचार उस यात्रा का प्रस्थान
बिंदु हो सकते हैं जहाँ से कोई धीर-शील पुरुष अपने इतिहास को दुबारा से देख पढ़ जान सकता है और उसमें हमारी हिंदी की इन बहुआयामी पुनर्पाठों की छवियों को नए आलोक में विचरण कर
सकेगा. यहाँ ऐसे अकादमिक रंगमंचों से आगे बढ़ कर उन सारे सींकचों को तोड़ने की
कोशिशें होनी चाहिए जिनके पीछे सब बहुत शुभ-शुभ सा है, कुछ-कुछ वन्दनीय
श्रेणी का..
इस संदर्भ को देख कर जब मैं इन
पंक्तियों पर आता हूँ जिसमे फिर वे आग़ा हश्र को उर्दू-हिंदी का एक महत्वपूर्ण नाटककार मानते हैं
तब मेरा ध्यान उन सबके नामों की तरफ जाता है..फिर ये खुराफात भी आती है कि अगर कोई बिस्मिल्लाह हमें पढ़ाते तब भी क्या ऐसा
ही होता..
और एक बार फिर समझ आता है नाम सिर्फ नाम नहीं होते..!!
और एक बार फिर समझ आता है नाम सिर्फ नाम नहीं होते..!!
मार्च 07, 2011
हमारा घर हमारी माँ और आठ मार्च
{इस 'खैर ' से पहले की कहानी पर ध्यान न देकर यहीं से कंसनट्रेट कर अर्थात चित्त एकाग्रचित्त कर पढ़ने की कोशिश करें }
खैर आगे बढ़ते हैं और चलते हैं हमारे घर. खुद की प्रस्थिति में यह किसी आश्चर्य से कम नहीं. कब रसोई चलकर बैठक में प्याज़ के साथ आ जाये कोई कह नहीं सकता. क्योकि कोई कहता नहीं हमें सब पता है. गुसलखाने में बैठी माँ कब बैठक के पंखे को बंद करने को कहती है समझना मुश्किल है. इसकी संरचना की उत्तराधुनिक परिभाषा यही कहती है, 'कब', 'कौन', 'किसका' अतिक्रमण कर 'क्या' हो जायगा यह समझना इतना आसन काम नहीं.
हम सब इस घर से भाग लेना चाहते हैं और भागते भी हैं. रोज़. सिवाय माँ के. वह सिर्फ घुटती है और काम करती है. और पता नहीं किन किन बातों को याद कर हमेशा परेशान सी दिखती है. उसका मन भी कहता होगा भाग जाऊं पर कहाँ या शायद शायद सोचती भी होगी तो घुटनों के दर्द के मारे..पता नहीं क्या..भाग जाने का एक अदद विकल्प या जवाब कहीं और मकान हो सकता था जो अभी तक कहीं नहीं है. कम से कम इस शहर में तो नहीं ही है. बस वहीँ दबड़े मैं अपनी गृहस्थी को संभाले.
हर दिन शुरू ही अडजस्टमेंट से होता है. सुबह उठते ही सोने का कमरा रसोई में..फिर सब अपने समय के साथ आते जाते रहते हैं. माँ तो बस इस चारदीवारी को कोसते-कोसते रुक सी गयी दुपहरियों की उंघती नींदों में किसी एंटीलिया जैसे महल की सैर ही करती होगी; जहाँ कम से कम सबकी एक निश्चित भूमिका हो. यूँ नट का खेल कब तक चलता रहेगा. मतलब यह कि एक ऐसी मुकम्मल ईमारत जहाँ रसोई सिर्फ रसोई हो बैठक का कमरा या कूलर इस लिए न बंद करना पड़ जाये कि चूल्हा बुझ जायगा.
मतलब जब थकी हरी दुपहरी तिपहरी को जब घुटने और कमर के दर्द से कुछ देर भागना हो तो कोई एक अदद ऐसी जगह तो ज़रूर हो जहाँ वो कुछ पल सिर्फ अपने में रह सके..
इन ऊपर बैठी पंक्तियों में मेरी माँ कितनी है इस पर अन्यत्र विमर्श हो सकता है पर इतना तो मैं कह ही सकता हूँ कि इतने सालों में न ये घर बदला न हमारी माँ..घर बुढाता गया माँ भी..घर में जगह कम होती गयी तो न घर ने चाहा मेहमान आयें न माँ ने..हम बड़े होते गए और घर की भूमिका हमारे लिए एक सराय एक हाल्ट की तरह होती बनती गयी. माँ मुझसे पहले दिल्ली आई और मैं शायद जनम के एक डेढ़ साल बाद. उसकी भूमिका सिर्फ हमें पालने पोसने तक ही सीमित हो कर रह गयी या उन्होंने खुद ही कर ली होगी क्योंकि कमाने के लिए पिता हैं ही और शायद जो धनार्जन कौशल होना चाहिए वह इस शहरी परिवेश का उनके पास नहीं था न कभी आवश्यकता समझी गयी..
इसका यह मतलब नहीं कि हमारा घर पुरुष सत्तात्मक होता गया. जब कभी माँ बीमार पड़ती पिता रसोई सँभालते और हम सबके लिए सदाबहार पथ्य बनाते जिसे खिचड़ी ताहड़ी कुछ भी कहा जा सकता है और अभी भी हम उसे यही कहते हैं..कहते रहेंगे..
हमारी आवाजाही भी और हमारी भूमिका भी चुटुर- पुटुर के स्तर पर ही रही..हाँ हर इतवार प्याज काटने, मटर छीलने, मकर संक्रांति के दिन टमाटर का भर्ता और घी में लहसुन हम ही छीलते आ रहे हैं. इसे संख्यात्मक और गुणात्मक स्तर पर नापने जोखने की कोई ज़रूरत नहीं है..हमें पता है हम सिर्फ टमेटो सूप, डबलरोटी - मक्खन और मैगी बनाने की लिए ही करछुल जैसी किसी आकृति को हाथ में सँभालते हैं..हाँ चाकू की आवृति और बारंबारता इससे अधिक ही होगी..एक बात और की कपडे धोने की बात जहाँ तक होता है हम सब खुद ही धोते हैं.और कभी मन किया तो बर्तन पर भी हाथ साफ़ कर लिए. पर इधर तो रोज सुबह पिता जी ही बर्तन धो डालते हैं.
उस रात आखिर में यह लिखा था कि रूढ़ियाँ अपने आप बने बनाये पैटर्न सामने लाती गयी और हमने उससे बहार निकलने की कोशिश भी की इस जद्दोजेहद में कितने सफल हुए इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता..और न मुझे लगता है हर चीज सिर्फ सफल या असफल ही होती है..
इतने सालों बाद किसी फिल्म में अपने जैसा घर दिखा.धोबी घाट में मुन्ना अपने भाई सलीम के साथ बैठा टीवी देख रहा है तो उनका छुटका इम्तिहान पास कने के लिए किताब में सिर घुसाए पालथी मारे बैठा है और फेल हो जाने के की स्थिति में बोली जाने वाली तकरीरें भी तैयार कर रहा है..वहीँ कहीं माँ की रसोई भी वहीँ विराजमान है माँ के साथ..
यह घर कुछ कुछ हमारे घर जैसा ही था एकमेक, गड्ड-मड्ड, उल्टा-पुल्टा सा कुछ-कुछ नोंक-झोंक सा, कुछ-कुछ शरारत जैसा. जिसमे हम सब कहीं खो से गए उसमें खोते चले गए और सबसे ज़यादा गुम हुई हमारी माँ..
{आठ मार्च हमारी माँ जैसी और बहुतों माँओं के हिस्से का दिन है, जिनकी कहानी 'दोपहर का भोजन ' के बाद से एक सिरे से गायब होती गयीं और हम कुछ नहीं कर सके..एक अदद 'चीफ़ की दावत 'भी नहीं लिखी गयी..}
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