मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
फैज़
अहमद फैज़ ने ७ मार्च
१९८४ ई. को अपनी मृत्यु से आठ महीने पहले एशियन स्टडी ग्रुप के निमंत्रण पर
इस्लामाबाद के एक सम्मेलन में बेबाक अंदाज में अपनी ज़िन्दगी के लंबे सफ़र
को जिस तरह बयान किया था, उसे पाठकों के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है;
ज़िन्दगी के इस सफ़र को 'पाकिस्तान टाइम्स ' ने दो किस्तों में फैज़ की
सालगिरह के अवसर पर १३-१४ जनवरी १९९० के संस्करण में पहली बार प्रकाशित
किया था। फैज़ की इस आपबीती को साभार पुनः प्रस्तुत किया जा रहा है।
{यह
आभार प्रकट करती पंक्तियाँ
'नया
पथ 'में संपादक द्वारा पहले दी जा
चुकी हैं , यहाँ मेरी तरफ से
भी इन्हीं की पुनरावृति की जा रही है और आपसे अनुरोध है कि इसे फ़ैज़ पर पिछली पोस्ट होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे के साथ नत्थी कर लें .और हाँ पकिस्तान टाइम्स ने इसे दो किस्तों में पहली बार छापा था और यहाँ भी
सुविधा की दृष्टि से ऐसा ही किया जा रहा है पर ये दोनों पोस्टें लगातार होंगी जिससे वह क्रम बना रहे ..}
मेरा
जन्म उन्नीसवीं सदी के एक ऐसे फक्कड़ व्यक्ति के घर में हुआ था जिसकी
ज़िन्दगी मुझसे कहीं ज्यादा रंगीन अंदाज में गुज़री। मेरे पिता सियालकोट के
एक छोटे से गांव में एक भूमिहीन किसान के घर पैदा हुए, यह बात मेरे पिता ने
बतायी थी और इसकी तस्दीक गांव के दूसरे लोगों द्वारा भी हुई थी।मेरे दादा
के पास चूंकि कोई
ज़मीन नहीं थी इसलिए मेरे पिता गांव के उन किसानों के पशुओं को चराने का काम
करते थे जिनकी अपनी ज़मीन थी। मेरे पिता कहा करते थे कि पशुओं को चराने
गांव के बाहर ले जाते थे जहां एक स्कूल था। वह पशुओं को चरने के लिए छोड़
देते और स्कूल में जाकर शिक्षा प्राप्त करते, इस तरह उन्होंने प्राथमिक
स्तर की शिक्षा पूरी की। चूंकि गांव में इससे आगे की शिक्षा की कोई
व्यवस्था नहीं थी, वह गांव से भाग कर लाहौर पहुंच गये। उन्होंने लाहौर की
एक मस्जिद में शरण ली।मेरे पिता कहते थे कि वह शाम को
रेलवे स्टेशन चले जाया करते थे और वहां कुली के रूप में काम करते थे।
उस
ज़माने में ग़रीब और अक्षम छात्र मस्जिदों में रहते थे और मस्जिद के इमाम से
या आसपास के मदरसों में निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे। इलाक़े लोग उन
छात्रों को भोजन उपलब्ध कराते थे।जब मेरे पिता मस्जिद में रहा
करते थे तो उस ज़माने में एक अफगानी नागरिक जो पंजाब सरकार का मेयर था,
मस्जिद में नमाज. पढ़ने आया करता था। उसने मेरे पिता से पूछा कि कया वह
अफ़गानिस्तान में अंग्रेज़ी अनुवादक के तौर पर काम करना पसंद करेंगे, तो मेरे
पिता ने अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए अफ़गानिस्तान जाने का इरादा कर लिया।
यह वह समय था जब अफ़गानिस्तान के राजमहल में आये दिन
परिवर्तन होता रहता था।
अफ़गानिस्तान और इंग्लैंड के बीच डूरंड संधि की आवश्यकता का अनुभवभी उसी
समय में हुआ और इसीलिए
अफ़गानिस्तान के राजा ने मेरे पिता को अंग्रेजों के साथ बातचीत करने में
सहायता करने के उद्देश्य से दरबार से अनुबंधित कर लिया। इसके बाद वह मुख्य
सचिव और फिर मंत्री भी नियुक्त हुए। उनके ज़माने में विभिन्न क बीलों का दमन
किया गया जिसके परिणामस्वरूप हारने वाले क बाइल (क बीला का बहुवचन) की खास
औरतों को राजमहल के कारिंदों में वितरित कर दिया जाता था। ये औरतें मेरे
पिता के हिस्से में भी आयीं, नहीं मालूम उनकी संख्या तीन थी या चार।बहरहाल
अफ़गानिस्तान के राजमहल
में पंद्रह साल सेवा देने के बाद वह तंग आ गये और उनका ऊब जाना स्वाभाविक
भी था क्योंकि राजा के अफ़गानी मूल के कर्मचारियों को एक विदेशी का दरबार
में प्रभावी होना खटकता था।
मेरे पिता को प्रायः ब्रितानी एजेंट घोषित किया
जाता और जब उस अपराध के फलस्वरूप उन्हें मृत्युदंड दिये जाने की घोषणा
होती तो नियत समय पर यह सिद्घ हो जाता के वह निर्दोष हैं और उन्हें आगे
पदोन्नति दे दी जाती। लेकिन एक दिन उन्होंने फ़कीर का भेस बदला
औरअफ़गानिस्तान के राजमहल से फ़रार
हो गये और लाहौर वापस आ गये लेकिन यहां वापस आते ही उन्हें अफ़गानी जासूस
होने के आरोप में पकड लिया गया।
मेरे
पिता की तरह फक्कड़ाना
स्वभाव रखने वाली एक अंग्रेज महिला भी उस ज़माने में डाक्टर के रूप में
दरबार से जुडी थी। उसका नाम हैमिल्टन था। उससे मेरे पिता की मित्रता हो गयी
थी। अफ़गानिस्तान के राजा से उसे जो भी पुरस्कार मिला था उसे उसने लंदन में
सुरक्षित कर रखा था। इसप्रकार जब मेरे पिता
अफ़गानिस्तान से निकल भागे तो उसने तो उसने उन्हें लिखा ‘तुम लंदन आ जाओ*।
इस आमंत्रण पर मेरे पिता लंदन पहुंच गये और जब ब्रिटेन की सरकार को उनके
लंदन आगमन की सूचना मिली तो मेरे पिता को यह संदेश मिला कि चूंकि अब तुम
लंदन में हो तो मेरे दूत क्यों नहीं बन जाते? मेरे पिता ने यह प्रस्ताव
स्वीकार कर लिया। और साथ ही उन्होंने कैंब्रिज में अपनी आगे की शिक्षा का
क्रम भी जारी रखा। वहीं उन्होंने कानून की डिग्री भी प्राप्त की। मेरे पिता
का नाम सुल्तान था इसलिए मैं फारसी का यह मुहावरा तो अपने लिए दुहरा ही
सकता हूं कि 'पिदरम सुल्तान बूद' (मेरे पिता राजा थे)।
क़ानून
की डिग्री प्राप्त करने
के बाद मेरे पिता सियालकोट लौट आये। मेरी आरंभिक शिक्षा मुहल्ले की एक
मस्जिद में हुई। शहर में दो स्कूल थे एक स्कॉच मिशन की और दूसरा अमरीकी
मिशन की निगरानी में चलता था। मैंने स्कॉच मिशन के स्कूल में प्रवेश ले
लिया। यह हमारे घर से नजदीक था।यह ज़माना जबरदस्त राजनीतिक
उथलपुथल का था। प्रथम विश्वयुद्घ समाप्त हो चुका था और भारत में कई
राष्ट्रीय आंदोलन आकर्षण का केंद्र बन रहे थे। कांग्रेस के आंदोलन में
हिंदू और मुसलमान दोनों ही क़ौमें हिस्सा ले रही थीं लेकिन इस आंदोलन में
हिंदुओं की बहुलता थी। दूसरी ओर मुसलमानों की तरफ से चलाया जाने वाला
खिलाफत आंदोलन था।
प्रथम
विश्वयुद्घ की समाप्ति पर
परिदृश्य यह था कि तुर्क क़ौम ब्रितानी और यूनानी आक्रांताओं के विरुद्घ
पंङ्कितबद्घ थी परंतु उस्मान वंशीय खिलाफ़त को बचाया नहीं जा सका और तुर्की
अंततः कमाल अतातुर्क के क्रांतिकारी विचारों के प्रभाव में आ गया जिन्हें
आधुनिक तुर्की का निर्माता कहा जाता है। एक तीसरा आंदोलन सिक्खों का
अकाली आंदोलन था जो सिक्खों के सभी गुरुद्वारों को अपने अधीन लेने के लिए
आंदोलनरत था। इस प्रकार लगभग छः सात साल तक हिंदू, मुस्लिम और सिक्ख तीनों
ही अंग्रेज के विरुद्घ एक साझे एजेंडे के तहत आंदोलन चलाते रहे।
हमारे
छोटे से शहर सियालकोट में जब भी महात्मा गांधी, मोतीलाल नेहरू और सिक्खों
के नेता आते थे तो पूरा शहर सजाया जाता, बड़े बड़े स्वागत द्वार फूलों से
बनाये जाते थे और पूरा शहर उन नेताओं के स्वागत में उमड पड़ता था। राजनीतिक
गहमागहमी का यह दौर हमारे मन पर अपने प्रभाव छोड़ने का कारण बना। इसी
दौरान रूस में अङ्कटूबर
क्रांति घटित हो चुकी थी और उसका समाचार सियालकोट तक भी पहुंच रहा था।
मैंने लोगों को कहते हुए सुना कि रूस में लेनिन नाम के एक व्यक्ति ने वहां
के बादशाह का तख्ता उलट दिया है और सारी संपत्ति श्रमजीवियों में बांट दी
है।
स्कूल
की पढाई का यही वह ज़माना
था जब शायरी में मेरी रुचि उत्पन्न हुई। इसके पीछे दो कारण थे। हमारे घर के
पास एक नौजवान किताबें किराये पर पढ़ने के लिए दिया करता था। मैंने उससे
किराये पर किताबें लेनी शुरू कर दीं और धीरेधीरे मैंने उसकी ऐसी सभी
किताबें पढ़ डालीं जो कलासिक साहित्य से संबंधित थीं। मेरा सारा जेब खर्च
भी किताबें किराये पर लेने में खर्च हो जाता था। उस ज़माने में सियालकोट का
एक प्रसिद्घ साहित्यिक व्यक्तित्व अल्लामा इकबाल का था जिनकी नज्मों को बड़े
शौकसे सभाओं में गाया और पढा जाता
था। वहां एक प्राथमिक विद्यालय भी था जिसमें मैं पढ़ता था। वहां मुशायरे भी
होते थे, यह मेरे स्कूल की शिक्षा के अंतिम दिन थे। हमारे हेडमास्टर ने
हमसे एक दिन कहा कि मैं तुम्हें एक मिसरा देता हूं, तुम इस पर आधारित पांच
छः शेर लिखो, हम तुम्हारे कलाम (ग़ज़ल) को शायर इक़बाल के उस्ताद के
पास भेजेंगे और वह जिस कलाम को पुरस्कार का अधिकारी घोषित करेंगे उसे ही
पुरस्कार मिलेगा। इस तरह मैंने शायरी के उस पहले मुक़ाबले में पुरस्कार के
रूप में एक रुपया प्राप्त किया था, जो उस ज़माने में बहुत समझा जाता था।
सियालकोट में दो साल गुज़ारने के बाद मैंने लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में
प्रवेश ले लिया।
सियालकोट से लाहौर आना
रोमांच से भरपूर था। यूं लगा जैसे
कोई गांव छोड़ के किसी अजनबी शहर में आ गया हो। उसकी वजह यह भी थी कि उस
ज़माने में सियालकोट में न
बिजली थी और न पानी के नल थे। भिश्ती पानी भरते थे या फिर कुंओं से पानी
भरा जाता था। कुछ बड़े घरों में पीने के पानी के कुंए उपलब्ध थे। हम सब ही
उस ज़माने में मिट्टी के तेल से जलने वाली लालटेनों की रौशनी में पढ़ते थे।
यह लालटेन बड़ी खुबसूरत हुआ करती थी। सियालकोट में मोटर कभी नहीं देखी। वहां
के सभी अधिकारी बग्घियों में आते जाते थे। मेरे पिता के पास दो घोड़ों वाली
बग्घी थी। जब मैं लाहौर आया तो हैरान रह गया। यहां मोटरें थीं, औरतें बिना
बुर्के के नज़र आ रही थीं। और
लोग अजनबी पहनावे अपने बदन पर पहने हुए थे। हमारे कॉलेज में आधे से अधिक
शिक्षक अंग्रेज थे। हमारे अंग्रेज़ी के शिक्षक लैंघम थे, जो बहुत कड़े
स्वभाव के थे, लेकिन शिक्षक बहुत अच्छे थे। मैंने अंग्रेज़ी के पर्चे में
१५० में से ६३ नंबर लिये तो सब दंग रह गये। कॉलेज में मेरा क़द बढ गया। और
मुझे यह सलाह दी जाने लगी कि मैं इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी
करूं। मैंने निश्चय कर लिया कि मैं परीक्षा में बैठूंगा लेकिन मैं इंडियन
सिविल सर्विस की परीक्षा की तैयारी करने के बजाय धीरेधीरे शायरी करने लगा।
इस परिस्थति के लिए कई कारण ज़िम्मेदार थे।
एक यह कि डिग्री प्राप्त करने से
पहले ही मेरे पिता का निधन हो गया और हमें यह पता चला कि वह जो कुछ
संपत्ति छोड़ गये हैं उससे कहीं अधिक कर्ज़ चुकाने के लिए छोड़ गये थे और इस
तरह शहर का एक खातापीता खानदान हालात के झटके में ग़रीब और असहाय हो गया।
दूसरा जो मेरे और मेरे खानदान
की परेशानियों का कारण बना वह व्यापक आर्थिक संकट और मंदी था जिसके प्रभाव
से उस ज़माने में कोई भी व्यक्ति सुरक्षित न रह सका। मुसलमानों पर इसका
प्रभाव अधिक पड़ा, चूंकि उनमें बहुतायत
खेतिहर लोगों की थी। मंदी का प्रभाव ह्मषि पर अधिक पड़ा था। नतीजा यह हुआ कि
गांव से शहर की ओर पलायन आरंभ हो गया क्योंकि छोटी जगहों में रोज गार
उपलब्ध कराने वाले संसाधन नहीं थे और ऐसे संसाधन पर प्रायः हिंदुओं का
कब्ज़ा था। सरकारी नौकरी भी एक रास्ता था लेकिन चूंकि मुसलमान शिक्षा के
क्षेत्र में काफ़ी पिछडे हुए थे इसलिए यहां भी उनके लिए अधिक अवसर नहीं थे।
मेरे और मेरे खानदान के लिए यह ज़माना राजनीतिक और वैयक्तिक कारणों से
परीक्षाऔर परेशानियों का था। इस तनाव
और सोचविचार को अभिव्यक्ति के माध्यम की आवश्यकता थी सो यह शायरी ने पूरी
कर दी।
मेरी
उम्र १७,१८ साल के आसपास
थी और जैसा कि होता है मैं बचपन से ही साथ खेलने वाली एक अफ़गान लड़की की
मुहब्बत में गिरफ्तार हो गया। वह बचपन में तो सियालकोट में थी लेकिन बाद
में उसका खानदान आज के फैसलाबाद के समीप एक गांव में आबाद हो गया था। मेरी
एक बहन की उसी गांव में शादी हुई थी। जब मैं अपनी बहन के पास गया तो उसके
घर भी गया, वह लड़की तब पर्दा करने लगी थी। एक सुबह मैंने उसे तोते को कुछ
खिलाते हुए देखा। वह बहुत खूबसूरत लग रही थी। हम दोनों ने एक दूसरे को देखा
और एक दूसरे की मुहब्बत में गिरफ्तार हो गये। हम छुपछुप के मिलते रहे और
एक दिन जैसा कि
होता है उसकी कहीं शादी हो गयी और जुदाई का यह अनुभव छःसात बरस तक मुझे
उदास करता रहा। इस अवधि में मेरी शिक्षा भी जारी रही और शायरी भी। स्थानीय
मुशायरे में तीसरी बार जब मुझे भाग लेने
का अवसर मिला तो मेरी शायरी को काफ़ी सराहा गया और इस तरह लाहौर जैसे शहर
की बड़ी साहित्यिक हस्तियां मेरी शायरी से परिचित हुईं और सबने मुझे अपना
आशीर्वाद देना चाहा। मैं अब अच्छा खासा शायर बन चुका था।
यही
वह दौर था जब उपमहाद्वीप
में उग्रपंथ के पहले आंदोलन का आरंभ हुआ। उस आंदोलन के प्रभाव हमारे कॉलेज
के अंदर भी पहुंच रहे थे और मेरा एक अभिन्न मित्र जिसे बाद में एक प्रसिद्घ
संगीतकार ख्वाजा खुर्शीद अनवर के रूप में जाना गया, उस आंदोलन का सक्रिय
कार्यकर्त्ता था। वह बम बनाने के लिए कॉलेज की प्रयोगशाला से तेजाब चुराने
के अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया। उसे तीन साल की सजा भी सुनायी गयी।
वह कुछ समय तक जरूर जेल में रहा था लेकिन बाद में वह अपने प्रभावशाली पिता
के रसूख के कारण छूट गया। मेरी बहुत सी जानकारियों का माध्यम वही था। वह
अक्सर अपने आंदोलन का साहित्य मेरे कमरे में छोड़ जाता और जब कभी मैं उसे
पढ़ता तो मेरे ऊपर जुनून सा छा जाता था, क्योंकि मेरे पिता अंग्रेजों के
वफादार और उपाधि प्राप्त थे लेकिन इतना जरूर हुआ कि मैं उग्रपंथियों के
आंदोलन और
उसके बहुत से राजनीतिक समूहों से परिचित हो गया। मेरे ऊपर उसका कोई गहरा
प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन वह सब कुछ मेर लिए महत्वहीन नहीं था।
तीन
चार साल बाद मैंने पहले
अंग्रेज़ी में और फिर अरबी में एम.ए. कर लिया और फिर मैंने शिक्षण का कार्य
अपना लिया। उससे मुझे काफ़ी सहारा मिला और खानदान को आर्थिक संकटों से
उबारने में सहायता भी। इस अवधि में मेरे कॉलेज के ज़माने के दो साथी
आक्सफोर्ड से मार्क्सिस्ट होकर लौटे थे।उनके अलावा उच्च घरानों के कुछ और
लड के भी इंग्लैंड की यूनवर्सिर्टियों से कम्युनिस्ट विचार लेकर लौटे थे।
उनमें से कुछ तो राजनीतिक दृष्टिकोण से व्यस्त हो गये, कुछ ने नौकरी के
चक्कर में इस तरह के विचार को छोड़ दिया। लेकिन
इसी टोली के नेतृत्व में साहित्य के प्रगतिशील आंदोलन का आंरभ हुआ। यह
साहित्यिक आंदोलन, कम्युनिस्ट या मार्क्सिस्ट आंदोलन नहीं था। वैसे उसमें
सक्रिय भाग लेने वालों में कुछ कम्युनिस्ट भी थे और मार्क्सिस्ट भी। असल
में प्रगतिशील आंदोलन साहित्य में सामाजिक यथार्थ को बढावा देने से संबंध
रखता था और रूढि बद्घ होकर कविता करने को बुरा समझता था। भाषा की कलाबाज़ी
भी इस आंदोलन के लिए व्यर्थ थी। इस आंदोलन के प्रभावस्वरूप यथार्थवादी और
राजनीतिक गीतों के चलन को बढ़ावा मिला। इस प्रकार का साहित्यिक चलन यूरोप और
अमेरिका में भी फासीवाद विरोधी साहित्यिक प्रवृत्ति के रूप में उभरा,
जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक सरोकार वाले साहित्य का जन्म हुआ।
१९३२-३५
के मध्य का यही वह समय
था जब उस साहित्यिक, राजनीतिक आंदोलन से मेरा जुडाव शुरू हुआ। मज़दूरों,
श्रमजीवियों और किसानों के आंदोलनधर्मी गीत और राजनीतिक अभिव्यक्ति और
नयीपुरानी काव्य पद्घति के मिश्रण को लोगों ने सराहा और उन्हें पसंद भी
किया। जब १९४१ में मेरा पहला संग्रह प्रकाशित हुआ तो वह तेज़ी से बिक गया।
फिर द्वितीय विश्व युद्घ की लहर आयी लेकिन हम लोगों ने उसका ज्यादा नोटिस
नहीं लिया। हमारे विचार में उस युद्घ से ब्रिटेन और जर्मनी का सरोकार था
मगर १९४१ में जापान भी उस युद्घ में शामिल हो गया तो हमें कुछ आभास हुआ।
क्योंकि उस समय अगर एक ओर जापानी भारत की सीमा
तक आ गये थे तो दूसरी ओर नाजियों और फासिस्टों के क़दम मास्को और लेनिनग्राद
तक पहुंच गये थे और तभी हमने महसूस किया कि युद्घ से हमारा संबद्घ होना
आवश्यक है। इसलिए हम फ़ौज में शामिल हो गये। मुझे याद है पहले दिन जनसंपर्क
विभाग के निरीक्षक एक ब्रिगेडियर के सामने मेरी पेशी हुई। वह आपैचारिक रूप
से फ़ौजी नहीं था, वह बहुत जिंदादिल आइरिश था और लंदन टाइम्स से संबंध रखने
वाला एक पत्रकार था। मुझे देखकर उसने कहा तुम्हारे बारे में पुलिस की
खुफिया
रिपोर्ट कहती है कि तुम एक पक्के कम्युनिस्ट हो, बताओ हो या नहीं। मैंने
कहा मुझे नहीं पता कि पङ्कका कम्युनिस्ट कौन होता है। मेरा यह उत्तार सुनकर
उसने कहा मुझे इससे कोई मतलब नहीं, चाहे तुम फासीवादी विचार ही क्यों न
रखते हो, जब तक तुम हमें कोई धोखा नहीं देते; मैं समझता हूं तुम धोखा नहीं
दोगे। मैंने समर्थन में सिर हिला दिया।
यही
वह ज़माना था जब ब्रिटेन और
मित्र देशों के बीच संबंध बहुत अच्छे नहीं थे। उधर महात्मा गांधी ने भारत
छोड़ो आंदोलन आरंभ कर दिया था, जो पूरे देश में आग की तरह फैल गया था।
ब्रिटेन के सामने दो संकट थे। एक तो फ़ौज में लोगों की भर्ती और दूसरे
सरकार के विरुद्घ जोर पकडता हुआ जन आंदोलन। ब्रिटेन की फ़ौज के ब्रिगेडियर
ने मुझसे इस आंदोलन के विषय में विचारविमर्श करते हुए पूछा तो मैंने कहा कि
ब्रिटेन अपने अस्तित्व के लिए भाग ले रहा है, जापान ब्रिटेन के लिए एकबड़ा
खतरा है और अगर जापान तथा
जर्मनी विजयी होते हैं तो ब्रिटेन को सौ दो सौ साल तक गुलाम रहने का दंश
झेलना होगा और इसका मतलब यह है कि हमें अपने देश को इस कष्ट से सुरक्षित
रखने के लिए ब्रिटेन की फ़ौज का हिस्सा बनकर लड़ना चाहिए। अंग्रेज अपने लिए
नहीं लड रहा है वह भारत के लिए लड रहा है। मेरे इस तर्क को सुनकर उसने कहा
तुम जो कुछ कह रहे हो ये तो सब राजनीति है मगर इस तर्क को फ़ौज के लिए
स्वीकार्य कैसे बनाया जाये? मैंने कहा कि इस विचार को फ़ौज के लिए स्वीकार्य
बनाने का तरीक़ा
वही होना चाहिए जो कम्युनिस्टों का है। उसने चौंककर पूछा कया मतलब? मेरा
जवाब था, हम कम्युनिस्ट एक छोटी टोली बनाते हैं। फ़ौज के हर यूनिट में इस
तरह की एक विशेष टोली बनाने के बाद हम अफसरों को यह बताते हैं कि फासिज्म
कया है और उन्हें यह भी समझाते हैं कि जापान और इटली वालों के इरादे कया
हैं। इसके बाद उन अफसरों से कहा जाता है कि वे उक्त टोली में बतायी जाने
वाली बातों को अपने यूनिटों के सिपाहियों को जाकर समझायें और बतायें।
इस
तरह हम इस रणनीति के तहत
पहले फ़ौजी अफसरों को मानसिक रूप से सुदृढ करते थे और फिर उनके माध्यम से
आशिक्षित
सिपाहियों को भी एक दिशा देते थे। इस पद्घति का विरोध भी बहुत हुआ। बात
वायसराय, कमांडरइनचीफ. और फिर इंडिया आफि स तक पहुंची। मुझसे कहा गया कि
मैं अपनी योजना को लिखित रूप में प्रस्तुत करूं। अंततः इस योजना को मंजूरी
मिल गयी और हमने फिर ‘जोश ग्रुप* बनाये जो बहुत सफल रहा और इसके
परिणामस्वरूप मैं ब्रिटेन द्वारा सम्मानित किया गया और तीन सालों में कर्नल
बना दिया गया। उस ज़माने में ब्रितानी फ़ौज में एक भारतीय के लिए इससे ऊंचा
फ़ौजी पद कोई और नहीं था। उस ज़माने में मुझे फ़ौज की कार्य पद्घति और
ब्रितानी सरकार को जानने का अवसर मिला। मुझे पत्रकारिता का अनुभव भी उसी
ज़माने में हुआ, क्योंकि सभी मोर्चे पर भारतीय फ़ौज के प्रचार का काम मेरे ही
जिम्मे था और मैं बहुत हद तक भारतीय फ़ौज के लिए राजनीतिक अधिकारी
(पॉलीटिकल कमिश्नर) का काम करने लगा। युद्घ की समाप्ति पर मैं फ़ौज से अलग
हो गया। उस समय मेरे सामने दो रास्ते थे या तो विदेश सेवा से संबंद्घ हो
जाता या फिर सिविल सेवा से। लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया।
यह
वह ज़माना था जब पाकिस्तान के
लिए आंदोलन और भारतीय कांग्रेस का स्वाधीनता आंदोलन अपने चरम पर था। मेरे
एक पुराने मित्र जो एक बड़े ज़मींदार भी थे और जो पंजाब कांग्रेस पार्टी के
अधयक्ष रहने के बाद मुस्लिम लीग में आ गये थे मुझसे कहने लगे कि मैं सिविल
सेवा में जाने की इच्छा समाप्त कर दूं क्योंकि वह लाहौर से एक अंग्रेज़ी
दैनिक निकालने की योजना बना रहे थे। उन्होंने उस अखबार का संपादन करने का
प्रस्ताव दिया जो मैंने स्वीकार कर लिया और मैंने जनवरी १९४७ में लाहौर आकर
पाकिस्तान टाइम्स का संपादन संभाल लिया। मैं चार साल पाकिस्तान टाइम्स का
संपादक रहा। इसी अवधि में पाकिस्तान ट्रेड
यूनियन का उपाधयक्ष भी मुझे बना दिया गया। १९४८ में नागासाकी और हिरोशिमा
पर होने वाली बमबारी के बाद कोरियाई युद्घ भी छिड. गया। इस बीच स्काटहोम से
यह अपील आयी कि हम शांतिस्थापना के लिए आंदोलन चलायें। उस अपील के समर्थन
में अमन कमेटी की स्थापना हुई और मुझे उसका संचालक बना दिया गया। अब मैं
ट्रेड यूनियन, अमन कमेटी और पाकिस्तान टाइम्स तीनों मोर्चे पर सक्रिय था और
सक्रियता तथा कार्यशैली के लिहाज से यह बहुत व्यस्त समय था। उसी ज़माने
में आई.एल.ओ की एक मीटिंग में भाग लेने के लिए पहली बार देश से बाहर जाने
का अवसर मिला। मैंने
सानफ़्रांसिस्को के अतिरिक्त जेनेवा में भी दो अधिवेशनों में भाग लिया और इस
तरह अमेरिका और यूरोप से मैं पहली बार परिचित हुआ।
उर्दू
से अनुवाद : मो. जफर
इक़बाल
[जारी..]
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