बन्धु सखा के स्त्री-पुल्लिंग संस्करण इसे आत्मशलाघा का उत्तर आधुनिक दस्तावेज़ न मान इसका पठन पाठन करेंगे, इसी आशा के साथ.. जिस दिन से पिछली पोस्ट की थी इसी कागज़ को ढूंढ़ रहा था..यह राकेश ने लिखा था, उन्ही दिनों. एक दो दिन आगे पीछे.. मार्च की अठारह तारीख पड़ी है उस हाशिये पर..
भाई शचीन्द्र तुम्हारी जटा जूट और वस्त्रों के साथ प्रयोग उदासीनता की नहीं प्रतिक्रियात्मक का सा बोध कराता है प्रतिक्रिया चीजों को तोडती ज़रूर है, परन्तु संरचना के आभाव में गैर ज़िम्मेदाराना हो जाती है. तुम चीजों की मानी परिभाषाएं ध्वस्त करते हो, अपनी ख़ामोशी से और फक्कड़पने से. ख़ामोशी के पीछे तुममे एक अशांत हलचल है जो कागजों को अक्सर अपना शिकार बनती है. मित्र तबाही के बाद का मलबा आत्मघातक और अरुचिकर होता है लगभग घिनौना. इसलिए निर्माण की ज़िम्मेदारी भी तुम्हारी ही है.विपरीत सेक्स की ओर आकर्षण तुम्हारे यहाँ लाइनों में तो सजता है परन्तु तुम्हारे रोजमर्रा को उजड़ता भी है. तुम्हारी लिखावट की रचनात्मकता शायद ज़िन्दगी के उबड़-खाबड़पन की भरपाई है. फिर भी फ्रायडवादी नहीं कहूँगा.विरोध को बोलना तुम्हारे यहाँ बेमौत मरता है, कागज़ पर भले सजे. ख़ुशी के और प्यार की विपरीतलिंगीय अनुभूति दिल के किसी कोने में दफन हो जाती है. जिससे तुम अतीत के मधुर संरक्षक हो.
तुम्हे जिद्दी कहना तुम्हारे सन्दर्भ में सही होगा. मसलन तुम जनता को 'इरिटेट ' करने में माहिर हो. दुनिया जहाँ में तुम अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को नहीं लाते हो. सीधी बात, एक तरफ़ा प्रेम तुम्हे मानसिक पीड़ा और दिली सुकून दोनों देता है. तुम्हारे यहाँ हर चीज़ का हल भी मौजूद है 'पन्ने रंगों'.
जो भी हो तुम्हारी लिखावट में व्यक्तिगत और सामाजिक दोनों की मौजूदगी है. व्यक्तिगत बोध में ही सामाजिक सरोकार तुम्हारे यहाँ सार्थक हैं. न तो तुम्हारा 'मैं ' प्यार की दुनिया में आया है न ही कला की दुनिया में. 'मैं ' तुम्हारे यहाँ जब तक घुटेगा तब तक तुम भी तड़पोगे. तुम्हारे अन्दर सूचनाओं और तथ्यों को चबाने की भी कला है. इसका तो रचनात्मक उपयोग भी तुम कर लेते हो. पर उन भावनाओं का, जो तथ्यों की दुनिया से परे, एक पहचान चाहती हैं, उनका क्या?
भावनाएं अशरीरी भले होती हों परन्तु उनकी जीवन्तता और उर्जा तो शरीर ही महसूस करता है. अपनी स्थूल अभिव्यक्ति में वो शारीरिक है. तुम्हारी इस अतिवादी धारणा से मैं सहमत नहीं हूँ कि 'प्रेम अशरीरी होता है'. मेरी समझ से इसे, छुआ जा सकता है, और नहीं छुआ जा सकता है, का द्वंद्व कहा जा सकता है.
द्वारा: राकेश चतुर्वेदी; 18 मार्च 2010