वो-अंगद का पाँव- और प्रेम
कथा का पंचर टायर. कहानी सुन कर लगा हमारा पहला आकर्षण 'रूप' के प्रति ही
होता है. बिना किसी जान पहचान हमें कोई बस भौतिक उपस्थिति के चलते अच्छा
लगता है और बाद की प्रक्रिया में गुण भी द्विगुणित कर दिए जाते हैं. हों ना
हों, उसका आभासी आभास हमें ज़रूर होने लगता है. फिर डैने इतने खुल जाते
हैं, जिसमे उड़ने के लिए सारा आकाश भी छोटा भद्दा कमतर सा हो जाता है.
'रूप' की परिभाषा में पता नहीं गोरा रंग भी डाल दिया. नाक नुकीली. दांत अनार. आँखें हिरिनी वाली. गाल सेब जैसे. होंठ बांस टाईप लचीले. माथा सूरज की तरह आभायमान.
हम उन संबंधों को कहाँ तक ले जाएँ यह हमारे ऊपर ही होना चाहिए. मतलब यह आदर्श स्थिति है. 'होना', 'न होना' संदर्भित है. और इस कहानी के दैहिक पाठ में 'अंगद' और उसकी रसियागिरी हमारे नायक पर भारी पड़ जाती है. यहाँ कोई चारित्रिक विमर्श नहीं चल रहा, न किसी सही गलत की बात होगी. दो हमउम्रों के बीच प्रौढ़ावस्था का आगंतुक प्रवेश कर आस्तीनों के इंसानों को पहले गढ़ता है फिर डस लेता है. यह बात अलग है दोनों पुरुष नायकों का अनंतिम लक्ष्य दैहिक रसानुभूति ही थी, जिसमे 'वो' के अनुसार 'अंगद' सफलता प्राप्त करता है. क्लायेमेक्स में रोने-धोने-गाने के दरमियान 'सीरित' भी दिख पड़ती है और नायक 'वो' हाथ से नायिका 'देह' को छोड़ता जाता है.
'सीरित' से पवित्रता शुद्तम प्रकार का प्रेम करने का दावा 'वो' कर चुका है. यहाँ तक की इन दोनों के दरमियान देह नहीं आ पाती. 'छू पाने न छू पाने के बीच के द्वंद्व' और राकेश की इस थियरी से इतर वो 'अ-शरीरी' प्रेम की तरफ झुका सा लगता है.
'लगने' का एक कारण यह भी है कि 'वो' अच्छी तरह जानता है कि 'सीरत' किसी और के लिए भी अपनी आँख में आँसू लाती है. और उन दोनों के बीच शरीर आते ही सम्बन्ध विच्छेद हो जाने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता. इसलिए यही भ्रम ठीक है की हम अपनी दैहिक आकांक्षाओं को सतह पर आने से पहले ही सचेत-सतर्क होकर उसका सामना करें.
जबकि 'अंगद' का दर्शन ठीक इसके उलट है और इसमें किसी भी प्रकार के विचलन आने की संभावनाएं न्यून प्रतीत होती हैं. उसके पास विकल्प ही विकल्प हैं. समय तो खैर हर सत्र में दोबारा वहीँ दरवाज़े पर खड़ा होता है.
'वो' के आध्यात्मिक प्रेम संस्करण ने उसे दुखी-दुखी सा बना रख छोड़ा है. साथी पकड़ भी लेते हैं..पर शायद अपनी आ-जा रही इच्छाओं की नैतिक पुलिसिया जांच उसे ऐसा बना रही है या 'सीरत' के इसके प्रति पूर्ण रूपेण समर्पण न होने के चलते उसकी यह स्थिति हो सकती है. जैसा की 'आँसू प्रकरण' से हमें ज्ञात होता है.
दोनों पक्षों का एक दूसरे से इमानदारी के स्तर पर न होना और 'रूप' के कान भरने और जूं रेंगने में जो काम 'अंगद' ने किया; उसे देखें, तो एक समझ की कमी भी लगती है, जहाँ आपको जो कहा जा रहा है उसे आप मानती ही नहीं उसे 'सच का सामना' का कॉलेजी संस्करण समझ गर्दन झुका लेती हैं. 'अंगद' युवा किशोर मनोविज्ञान का सचेत उपयोगकर्ता भी लगता है. नैतिकता- दैहिक- शारीरिक चेष्टाओं को कुलांचें मारता यह बाज़ नहीं आता.
'वो' की इस पंचर सी लवस्टोरी के इस एपिसोड में यही पठकथा लिखी है कि वो अब 'सीरत' के इर्दगिर्द मंडराता भंवरा बनना तो चाहता है पर कली मुरझाई सी है. दोनों को बातचीत कर कई सारी गर्द और धुंधलके को साफ़ कर लेना चाहिए. दोनों की एक दूसरे से इस वर्तमान में क्या अपेक्षाएं हैं कुछ पता तो चले, कुछ हवा तो लगे. मुश्किल है. पर फेफड़े में हूक को कब तक दबाया जा सकता है. दमित इच्छाएं कब मानसिक गाँठ बन अपने व्याहार को अनियंत्रित कर दे उससे पहले सचेत हो जाना जयादा ठीक है.
कहानी कूटपद में हैं और सीमित प्रसार के लिए है, इसलिए पात्र परिचय नहीं दिया जा रहा है. न आप अपेक्षा ही रखें. ऐसा 'वो' ने मुझसे कहा था, कल..!!
'रूप' की परिभाषा में पता नहीं गोरा रंग भी डाल दिया. नाक नुकीली. दांत अनार. आँखें हिरिनी वाली. गाल सेब जैसे. होंठ बांस टाईप लचीले. माथा सूरज की तरह आभायमान.
हम उन संबंधों को कहाँ तक ले जाएँ यह हमारे ऊपर ही होना चाहिए. मतलब यह आदर्श स्थिति है. 'होना', 'न होना' संदर्भित है. और इस कहानी के दैहिक पाठ में 'अंगद' और उसकी रसियागिरी हमारे नायक पर भारी पड़ जाती है. यहाँ कोई चारित्रिक विमर्श नहीं चल रहा, न किसी सही गलत की बात होगी. दो हमउम्रों के बीच प्रौढ़ावस्था का आगंतुक प्रवेश कर आस्तीनों के इंसानों को पहले गढ़ता है फिर डस लेता है. यह बात अलग है दोनों पुरुष नायकों का अनंतिम लक्ष्य दैहिक रसानुभूति ही थी, जिसमे 'वो' के अनुसार 'अंगद' सफलता प्राप्त करता है. क्लायेमेक्स में रोने-धोने-गाने के दरमियान 'सीरित' भी दिख पड़ती है और नायक 'वो' हाथ से नायिका 'देह' को छोड़ता जाता है.
'सीरित' से पवित्रता शुद्तम प्रकार का प्रेम करने का दावा 'वो' कर चुका है. यहाँ तक की इन दोनों के दरमियान देह नहीं आ पाती. 'छू पाने न छू पाने के बीच के द्वंद्व' और राकेश की इस थियरी से इतर वो 'अ-शरीरी' प्रेम की तरफ झुका सा लगता है.
'लगने' का एक कारण यह भी है कि 'वो' अच्छी तरह जानता है कि 'सीरत' किसी और के लिए भी अपनी आँख में आँसू लाती है. और उन दोनों के बीच शरीर आते ही सम्बन्ध विच्छेद हो जाने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता. इसलिए यही भ्रम ठीक है की हम अपनी दैहिक आकांक्षाओं को सतह पर आने से पहले ही सचेत-सतर्क होकर उसका सामना करें.
जबकि 'अंगद' का दर्शन ठीक इसके उलट है और इसमें किसी भी प्रकार के विचलन आने की संभावनाएं न्यून प्रतीत होती हैं. उसके पास विकल्प ही विकल्प हैं. समय तो खैर हर सत्र में दोबारा वहीँ दरवाज़े पर खड़ा होता है.
'वो' के आध्यात्मिक प्रेम संस्करण ने उसे दुखी-दुखी सा बना रख छोड़ा है. साथी पकड़ भी लेते हैं..पर शायद अपनी आ-जा रही इच्छाओं की नैतिक पुलिसिया जांच उसे ऐसा बना रही है या 'सीरत' के इसके प्रति पूर्ण रूपेण समर्पण न होने के चलते उसकी यह स्थिति हो सकती है. जैसा की 'आँसू प्रकरण' से हमें ज्ञात होता है.
दोनों पक्षों का एक दूसरे से इमानदारी के स्तर पर न होना और 'रूप' के कान भरने और जूं रेंगने में जो काम 'अंगद' ने किया; उसे देखें, तो एक समझ की कमी भी लगती है, जहाँ आपको जो कहा जा रहा है उसे आप मानती ही नहीं उसे 'सच का सामना' का कॉलेजी संस्करण समझ गर्दन झुका लेती हैं. 'अंगद' युवा किशोर मनोविज्ञान का सचेत उपयोगकर्ता भी लगता है. नैतिकता- दैहिक- शारीरिक चेष्टाओं को कुलांचें मारता यह बाज़ नहीं आता.
'वो' की इस पंचर सी लवस्टोरी के इस एपिसोड में यही पठकथा लिखी है कि वो अब 'सीरत' के इर्दगिर्द मंडराता भंवरा बनना तो चाहता है पर कली मुरझाई सी है. दोनों को बातचीत कर कई सारी गर्द और धुंधलके को साफ़ कर लेना चाहिए. दोनों की एक दूसरे से इस वर्तमान में क्या अपेक्षाएं हैं कुछ पता तो चले, कुछ हवा तो लगे. मुश्किल है. पर फेफड़े में हूक को कब तक दबाया जा सकता है. दमित इच्छाएं कब मानसिक गाँठ बन अपने व्याहार को अनियंत्रित कर दे उससे पहले सचेत हो जाना जयादा ठीक है.
कहानी कूटपद में हैं और सीमित प्रसार के लिए है, इसलिए पात्र परिचय नहीं दिया जा रहा है. न आप अपेक्षा ही रखें. ऐसा 'वो' ने मुझसे कहा था, कल..!!