बड़े दिनों से बहुत कुछ इकठ्ठा हो गया पर बात नहीं हो सकी. कुछ कुछ पैराडाइम शिफ्ट जैसा. एक सरकारी स्कूल में अतिथि अध्यापक गेस्ट टीचर के रूप में पढ़ा रहा हूँ..हिंदी का मास्टर. माने सरकारी बंधुआ मजदूर. साढ़े सात सौ रुपया दिन. और जिस दिन नहीं गए पैसा कट. पता नहीं जो पढ़ाने का यूटोपिया था वो इतनी जल्दी क्यों टूट रहा है. इतने फटीचर बच्चे हैं कि लिखना नहीं जानते और ग्यारहवी-बारहवी में पढ़ रहे हैं..नियमित टीचर भी कुछ कम माशह अल्लाह नहीं. दिमाग से इतने पैदल के बस रोजी रोटी के चक्कर में अपनी भारी भरकम देह का बोझ उठाये रोज़ घर से चल यहाँ फाट पड़ते हैं..
हर रोज़ मर-मर के जाता हूँ और हर रोज़ का हासिल यही के उस स्कूल को जिन्दा करते-करते खुद और मरा-मरा सा..सोचता भी हूँ के अपने वक़्त का हर्जा कर वहां क्यों जाये जा रहा हूँ, पर..आध पौन कहानी लिख भी मारता पर ढाई तीन तक स्कूल में खटने के बाद उस मानसिक थकान से जूझते बीत जाते है..कुछ-कुछ फुटकर चिटुर-पुटुर चल भी रहा है तो उससे राजी नहीं हूँ..
अपने स्तर पर अध्यापन से जूझने की कोशिश कर रहा हूँ..दिक्कत शायद तब ज़यादा हो जाती है जब कक्षा असहयोग आन्दोलन करने पर उतारू हो. पूरे तंत्र में सेंध जैसा भी नहीं कर पाने की हताशा बार-बार घेर लेती है..ये भी पता है के उस इनपुट पर इतनी ज़ल्दी आउटपुट की अर्थशास्त्रीय व्याख्याएं नहीं की जानी चाहिए पर..समस्या बिलकुल इन वाक्य विन्यासों की तरह ही जटिल होती लग रही है. पर मैं सहज होना चाहता हूँ. कुछ कुछ ओढ़ा हुआ लगता है, उसे उगाढ़ देना चाहता हूँ..
पता नहीं जो कहना चाहता हूँ वो कह भी पा रहा हूँ या वही आप तक पहुँच रहा है जो इस वक़्त सोच रहा हूँ..अपने बीते कल पर अटका उन सब बिन्दुओं को दुरुस्त तो नहीं कर सकता पर मुड़ मुड़ कर देखता हूँ..देखना वर्तमान से पलायन भी हो सकता है और उसका रचनात्मक अर्थ भी लगाया जा सकता है. फिर इधर अपने पास एक अदद नौकरी की काबिलियत का अब तक न होना भी कचोटने लगता है. मेरे संगी साथी जो कभी साथ थे वो कहते हैं इतना पढ़ लिख कर भी क्या कर लिया..सोचता हूँ उस दिमाग से होगा भी क्या जो घर न चला सके..ऐसा लगने लगा है के घर चलाना जितना मौद्रिक कार्य व्यापार है, उतना मानसिक बाद में..
लिटमस टेस्ट की हताशा चुनौती में कब तब्दील होगी समझ नहीं पा रहा हूँ या शायद सब सामने होने पर भी समझदारी कहीं किन्ही क्षणों के लिए अपदस्थ हो गयी है..उसमे न लिख पाने की जूझन है और लगता है बदलती स्थितियों में रूढी बनता जा रहा हूँ..इतना सब पढ़ कर यह भी लग सकता है के कुछ प्रस्थापनाएं खुदय गढ़ ली गयी हैं और उन्ही के इर्द गिर्द अपने होने न होने को जाँच रहा हूँ..पर क्या करूँ इससे आगे जा नहीं पा रहा. सब कुछ ऐसा करते जा रहा है जिसमे ठहराव भी है टकराव भी, आग्रह दुराग्रह बनते जाते हैं, समस्या इसी में है..
ज़िन्दगी को कभी भी इतना किसी दूसरे के सापेक्ष नहीं देखता था पर उन दबावों को इस तरह महसूस करता हूँ के लगता है अब इतनी उम्र में भी उस लायक नहीं रहे के कोई काम कर सकें..ज्ञान का अपना अहंकार भी संग किसी न किसी रूप में डोलता रहता है..चेतन-अवचेतन किसी भी तह में..और ये सरकार है जो ऍफ़ डी आई के आने के बाद करोड़ों रोजगारों की बात करती है..हम पढ़लिख बस मरे जा रहे हैं..मरना है अन्दर ही अन्दर घुटने जैसा..
यह सब भी रोने जैसी किसी क्रिया जैसा लग रहा है, पर लोग कहते हैं कभी-कभी रो भी लेना चाहिए..कम से कम इसे 'आत्मालोचन' जैसा साहित्यिक कृत्य कह इसकी आड़ में नहीं छुपना चाहता..
(12/08/2012)
(12/08/2012)