इस लिहाज से दिल्ली बिलकुल भी ठीक शहर नहीं है। यहाँ वापस आए कुल जमा मेरे पास डेढ़ दो दिन ही हैं पर अंदर से लगातार यह मुझे अकेला करे दे रहा है। इसके ढर्रे में कुछ तो ऐसा है जो जोड़ता नहीं है। या ऐसा कुछ जो जोड़ नहीं पा रहा। कुछ तो है। पर क्या करूँ। लौटना तो था ही। लौट पड़े। जितने भी दिन बाहर रहा सुकून से था। अभी भी उन दिनों को छू लेने का मन करता है। कुछ-कुछ छू भी लूँ पर उन्हे फिर यहाँ की नगरीय गतिकी में जी न पाने की कसक है। टीस सी है के क्यों लौट पड़े। जो और कुछ नहीं तो तोड़ ही रही है।
यहाँ की परिधि की अपनी परिभाषाएँ है जो आते ही जकड़ लेती हैं। उन्ही में से एक है तकनीक। दो घंटे भी नहीं बीते थे के फ़ेसबुक पर हाज़िरी लगाने पहुँच गए। यह इन जैसे शहरों की त्रासदी ही कही जाएगी जहाँ सब आमने सामने नहीं मिलते। मिलने के लिए लॉगिन करते हैं। जीते जागते लोगों से मुलाक़ाते यहाँ ‘शेयर’ करते हैं। दोस्ती गाँठते हैं। एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहाँ मिलने से हमेशा बचना ही चाहते हैं। बहोत छोटे-छोटे घेरों में मिलते जुलते हैं। एक तरह की खोह जैसे। अंधेरे बंद कमरे।
पता नहीं यह इन शहरों के अकेलेपन को कितना भर पाते हैं। भर नहीं पाते तो आभास कितना देते हैं यह भी पूछे जाने वाला सवाल है। यहाँ जुड़ना खुद को दिलासा देने जैसा ही है। के हाँ कुछ हैं जिनसे बात करने के बहाने लगातार बन रहे हैं। कुछ अपनी कुछ उन दूसरों की पता चलती रहती है। यहाँ की ज़िंदगियों के क्षेपक की तरह। यह चिप्पक पतंग के कन्नों को कितनी देर तक संभाल पाएंगे कह नहीं सकते।
बाहर था तब तक फ़ोन सिर्फ फ़ोन वाले मूलभूत काम ही करता रहा। जैसे ही एनसीआर में दाखिल हुआ पता नहीं सुबह ही यह अपनी द्वितीयक भूमिका में कैसे आ गया। क्या हम इन जगहों का खालीपन इस तरह भरने की कोशिश कर रहे हैं। उसमे हम कितना सफल हुए उसके तफ़सरे में न भी जाएँ तब भी यह एकांत रिक्तता की तरफ ही ले जाता है और इस बिन्दु पर आकार शायद कहा जा सकता है के इन शहरों की संरचना में यह खालीपन अकेले हो जाने का भाव यहाँ की 'उपभोक्तावादी संस्कृति' की तरफ धकेल देता है। यह कुछ-कुछ इस रूप में भी अपनी स्वीकार्यता को वैध बनाता है जहाँ हमारे पास उन खाली क्षणों का कोई और विकल्प दूर-दूर तक नज़र नहीं आता।
इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है के शहरों की बनावट में यहाँ का कोई मूल निवासी होता ही नहीं है। होता तो शायद कहीं का भी नहीं है। पर इन उत्तर पूंजीवादी संकल्पनाओं में शहर खुद नहीं बनता। उसे बनाया जाता है। इन शहरों की ज़रूरत किन्हे है यह भी ध्यान से देखे जाना चाहिए। हम इन जगहों में कर क्या रहे हैं खुद से पूछे जाने वाला सवाल है। कोई जवाब एक रेखीय नहीं होगा। न ही सर्वमान्य। पर फिर बात आएगी कौशलों की। जिनसे यह शहर आज तक टिके रहे हैं। उनमे परिवर्तन भी हुए होंगे और संशोधन भी। काँट छाँट के बिना जायदा देर तक टिके रहना संभव ही नहीं है। फिर संभव तो विस्थापन के बिना उन कौशलों को सीखने वाले भी नहीं मिलेंगे। प्रवासी भी इसमे अपनी भूमिका निभाते हैं और महत्वपूर्ण कारक के रूप में सदा से उपस्थित हैं।
‘विकसित’ हो जाना अगर ‘शहर’ हो जाना है तब हमने बिलकुल ठीक मेढ़ पकड़ी है। उन्ही को अपने आदर्श के रूप में देखने में कोई भी समस्या नहीं होनी चाहिए। उसे सभी को समान रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए। पर लगता नहीं है के ऐसा कुछ भी सही है। अगर ऐसा न होता तब अपने को बचाए रखने के हिंसक अहिंसक संघर्ष कम से कम इस भौगौलिक नक़्शे के भीतर कहीं भी दिखाई नहीं देते। वे खुद को बदलते नहीं देखना चाहते -ऐसा सत्ता पक्ष सोच रहा है- तब क्या उन्हे ‘यथा-स्थितिवादी’ कह कर ख़ारिज कर देना चाहिए। किसी भी तरह के प्रतिरोध को उनके अस्तित्व की लड़ाई नहीं मानना चाहिए?!
जो संघर्ष नहीं कर सके आज वे अपने पुरखों की जगहों को छोड़ इन शहरों को बसा रहे हैं। इनकी बसावट में उनकी कोई पूछ नहीं है फिर भी वह यहीं हैं। यह सब खुद को अकेले होने से नहीं बचा पाये। भले उन जगहों पर उनका शोषण होता रहा हो पर यह शहर क्या कम हैं। लगातार उनकी स्थायी यादों को अपदस्थ कर खुद को स्थापित करती यह अमानवीय संरचना उन्हे ‘उपभोक्ता’ में तब्दील कर देती है। फिर दुनिया मुट्ठी में करता मोबाइल होगा और दस बीस रुपये वाला रीचार्ज कूपन। के इस इतवार अपनी मेहरारू से कुछ देर तो बतिया सकूँ। और फिर कोई बहाना बना उसके इस शहर आने को टाल जाऊँ।