अपनी बात कहने से पहले थोड़ा पीछे बचपन की तरफ़ जाता हूँ जहाँ मेनका गाँधी का उदय होना अभी बाकी है। वहाँ की कोई याद नहीं है कि कभी लाल किले पर कोई सर्कस लगा हो और वहाँ शेर की दहाड़ सुनाई दी हो। शायद छोटे रहे थे जब आखिरी बार इन जानवरों वाला सर्कस देखा था। भूल गए होंगे। बहराइच वाले सर्कस छोटे थे जानवरों का ख़र्चा उठा नहीं पाते होंगे। वह कभी लाये भी होंगे याद नहीं। बस हाथी भालू से काम चलाते रहे। शेर पालना थोड़ा टेढ़ा काम लगता है। पर इसबार बहराइच वाले नवंबर में देख लेंगे। तब दरगाह मेला नहीं होगा तो क्या। वह देखेंगे।
सुना कल अपने शहर में शेर दहाड़ने आया था। हमारी तरफ़ बादल ही इतने थे के आवाज़ दब गयी होगी। सब कह रहे हैं भारत माता का शेर। अभी परसो राकेश ने कहा तो सर्च किया पहली बार भारत माता नाम से अबीन्द्रनाथ ठाकुर ने एक पेंटिंग बनाई थी। वहाँ उनके चार हाथ तो थे। पर माता खड़ी हैं। किसी पर बैठी नहीं हैं।
शेर किस वन्य जीव प्रेमी का क्षेपक है अभी तक अज्ञात है। वैसे ‘सशस्त्र’ हथियार वाला यह भाव कब उनके मन में आया होगा समझना इतना कठिन नहीं है। हम खुद जब कुछ नहीं कर पाते तब ऐसे ही मिथकों के बारे में कह सुन रहे होते हैं। ‘आनंदमठ’ इस अम्मा को मुक्त कराने का प्रयास है। ‘वंदेमातरम’ इस छवि के इर्दगिर्द आज भी ख़ुद को बुन रहा होता है। माँ के प्रति प्रेम तो है पर इस पितृसत्तात्मक समाज में उसकी दयनीय स्थिति देख यह विचार पहली बार आया होगा। कि अस्त्र-शस्त्र से सम्पन्न कर देने के बाद वह सबसे मुक़ाबला करने लायक हो जाएगी। काश ऐसा सच में हो पाता। वह चित्र से बाहर निकल आती। और हमारा ‘उन्नीस सौ सैंतालीस’ कई दशकों पहले आ जाता। शायद उस ‘शास्त्रीय भाषा’ को अभिधा में ले लेने के कारण ऐसे गड्डमड्ड करता जा रहा हूँ। बहरहाल।
कई शेर हमने ‘पंचतंत्र’ की कहानियों में देखें हैं। उन सभी को विष्णु शर्मा ने शहराती सभ्य अहिंसक नहीं दिखाया। सब के सब जंगलों में ही पाये जाते रहे। उसकी ताकत से डरते रहे। यह डर ही उसकी सबसे बड़ी ताकत बनी रही। कोई सशस्त्र विद्रोह भी दिखाई नहीं देता। उसके नुकीले दाँत और नाखून उसकी भागने की गति के साथ मिलकर और पाशविक होते रहे। लगता है हम सबको खरगोश हो जाना होगा। और गायब तालाबों के समय में एक-एक कुआँ ढूँढ लेना होगा। तभी हम बचे रह सकेंगे। यह डर की कहानी नहीं है। यह साहस की कहानी है। धैर्य की कहानी है।
फ़िल्में इस भारत माता वाले शेर की याद में कुछ मदद करती नहीं लगती। एक तो मेरे पास कोई टाइम मशीन भी नहीं है कि अपने क्रांतिकारियों के जेल प्रवास को अपनी आँखों से देख पाता। कि वह जेल में इस शेर को कितना याद कर रहे होते थे। या ख़ुद ही ऐसे पशु बनने की कामना उनके कोमल हृदयों में कितनी देर तक टिक पाती थी। बेचारी पिक्चरें जितना दिखा पायी हैं वहाँ इसे सब याद तो कर रहे हैं पर शेर की कलाकृति किसी क्रांतिकारी ने अपनी जेल की दीवार पर नहीं बना रखी। ‘खड़िया’ कहाँ से लाये इसका कोई अता पता नहीं। ऊपर से यह ‘याद’ ऐतिहासिक रूप से कितनी प्रामाणिक है इसपर भी संशय बरकरार है। ‘नेहरू फैलोशिप’ नहीं मिला वरना रिसर्च करता। बहरहाल। शायद वे सब कुछ कम कलाकार रहे होंगे या याददाश्त से मार खा गए होंगे।
वैसे हमारी सरकार इन शेरों के गायब होने से परेशान सी दिखती रही है। जंगल-जंगल इनके पैरों के छाप ढूँढती टीमें बेचारी ख़ाक छान रही हैं। प्रधानमंत्री बेचारे इतनी उम्र में भी चिंतित नज़र आते हैं। उनके के सरिस्का दौरे के बाद हम भी शेरों का हालचाल लेने वहाँ पहुँचे थे। पर हमें भी दिखे नहीं। पहले लगा था उनकी बूढ़ी आँखें देख न पायी हों। पर हमें भी कोई परिंदा पर मारता नज़र नहीं आया। मौसम गरम नहीं था फ़िर भी नहीं। अभी इस जून ‘मदुमलई टाइगर रिज़र्व’ भी होते आए। पर नहीं। वहाँ भी नही। जंगल घना था फ़िर भी नहीं।
बाघ और शेर अगर एक ही होते हैं तो इन्हे बाघ और शेर अलग अलग क्यों कहा गया। फ़िर केदारनाथ सिंह जब कविता लिखते हैं तो उसे 'बाघ' कहते हैं। वह बाघ इतना ख़ुदमुख़्तार है कि उसके बारे में हम जो भी बोलते हैं वह दरअसल बाघ ही बोलता है। अपने पक्ष में भी। विपक्ष में भी। और हमें यह मानने में किसी को कोई एतराज नहीं होना चाहिए कि आस-पास की सारी आवाजें अपनी जगहों को या तो बाघ की आवाज को समर्पित कर देती हैं या फिर अपने होने में, नहीं होने के सच को स्वीकार कर चुप हो लेती हैं। और जब पाणिनी ने उसके गुर्राने में हुई भाषिक अशुद्धियों पर डांटना शुरू किया तब वह बाघ उन्हे खा जाता है। उदय प्रकाश ने काफ़ी पहले लिखा भी है।
ऐसे ही असगर वजाहत की एक लघु कथा है 'शेर'। शेर का मुँह 'पशु संसाधन विकास मंत्रालय' में तब्दील हो गया है और गधा घास के मैदान की तलाश में, लोमड़ी रोज़गार पाने के लोभ में और कुत्ते स्वर्ग में दाखिल होने की लालसा लिए उसके खुले मुँह में बिना प्रतिरोध के घुसे जा रहे हैं। उनके लिए प्रमाण से बड़ी चीज़ विश्वास हो गया है। क्या ऐसा ही विश्वास इधर की जनता पर भी अपना जादू कर गया है। क्या मालूम।