एकबहुत पुरानी याद है। कोई साल खत्म हो रहा था। उसी की किसी ठंडी सी शाम नीचे पार्क के पास वाली सीढ़ियों पर पवन से पूछा था,‘यह ‘ब्लॉग’क्या है’? उस साल यह ‘वर्ड ऑफ़ द इयर’ घोषित हुआ था। और मेरी ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी मुझे नहीं बता पायी थी। सच तब हमारे घर में कंप्यूटर नहीं था। यह भी नहीं जानता था इसे खोलते बंद कैसे करते हैं। लगता है अभी की तो बात है। बहरहाल।
तकनीकी रूप से अभी जिस जगह पर लिख रहा हूँ उसे ‘ब्लॉग’ कहते हैं। जब जैसा मन किया। कोई खयाल आया। किसी विचार से टकरा गया। कोई खट्टी-सी याद जीभ के नीचे होते हुए दिल तक गुज़र गयी। कभी कोई मीठी से दिन की उदासी घेरे रही। कभी तुम्हें धड़कते दिल की धड़कन कहते-कहते कुछ लिखता रहा। पर कभी यह नहीं सोचा कि इस उत्तर आधुनिक माध्यम की ‘शास्त्रीयता’ में यह फ़िट होता भी है या नहीं। ऐसे सवाल मूलतः हाशिये पर धकेले जाने की गरज से पूछे जाते हैं। जो पूछ रहे हैं क्यों पूछ रहे हैं देखे जाने लायक सवाल है। हम इसे अपनी मर्ज़ी से मोड़ते गाँठते बुनते सिवन उधेड़ते रहे पर इन सब प्रक्रियाओं को एक साथ कुछ कहा भी जाये, वाला आग्रह कभी पास नहीं फटका।
तकनीकी रूप से अभी जिस जगह पर लिख रहा हूँ उसे ‘ब्लॉग’ कहते हैं। जब जैसा मन किया। कोई खयाल आया। किसी विचार से टकरा गया। कोई खट्टी-सी याद जीभ के नीचे होते हुए दिल तक गुज़र गयी। कभी कोई मीठी से दिन की उदासी घेरे रही। कभी तुम्हें धड़कते दिल की धड़कन कहते-कहते कुछ लिखता रहा। पर कभी यह नहीं सोचा कि इस उत्तर आधुनिक माध्यम की ‘शास्त्रीयता’ में यह फ़िट होता भी है या नहीं। ऐसे सवाल मूलतः हाशिये पर धकेले जाने की गरज से पूछे जाते हैं। जो पूछ रहे हैं क्यों पूछ रहे हैं देखे जाने लायक सवाल है। हम इसे अपनी मर्ज़ी से मोड़ते गाँठते बुनते सिवन उधेड़ते रहे पर इन सब प्रक्रियाओं को एक साथ कुछ कहा भी जाये, वाला आग्रह कभी पास नहीं फटका।
यह स्पेस नितांत निजी किस्म की बैठक बना रहा। हम किसी को बुलाने नहीं गए। जिसका मन हुआ वो आया। जिसका दिल नहीं किया वह रुका भी नहीं। यहाँ उसकी स्वतन्त्रता भी उतनी ही ज़रूरी है जितनी हमारी। घसीट-घसीट कर लाने वाली आदत कभी रही नहीं। कान पकड़-पकड़ दिखाना अपना काम नहीं। शुरू से ही एक अनकही समझ काम करती रही के जिस भाषा में काम कर रहे हैं उसकी अपनी ‘गतिकी’ है और उस ‘गत्यात्मकता’ में हमारी कोई जगह नहीं है। हम बाहर के लोग हैं। हम अजनबी हैं। अजनबी ही रहेंगे। यह द्वीप जैसे होते जाने की तरह दिखता ज़रूर है। पर है नहीं।
सुनने में आ रहा है यह ब्लॉगिंग का दसवाँ साल है। दस साल पहले किसी ने कहीं ब्लॉग बनाया होगा। उस पर कोई पोस्ट लिखी होगी। इस वाक्य को संयोग की तरह लेना चाहिए या इसके एक-एक पद को विखंडित कर विश्लेषित किए जाने की ज़रूरत है। ज़रूरत इसरूप में कि किन ‘पहचानो’ किन ‘अस्मिताओं’ को उसने सबसे पहले अपने अंदर अपने यहाँ जगह दी। वे कौन लोग थे जो यहाँ ‘सबसे पहले’ की तर्ज़ पर यहाँ उपस्थित हुए। वे किन विशेष परिस्थितियों से निकल यहाँ पर आए थे। इन सबको जोड़कर जो सबसे सरल सवाल बनता है वह यह के, ‘वे सब कौन थे’?
शायद हिन्दी पट्टी के वे अप्रवासी जो इस देश में रह पाने का आर्थिक घाटा सह पाने की स्थिति में नहीं थे। और रोज़गार की गरज से यहाँ से छिटक कर किन्ही किन्ही देशों में पाये जाने लगे थे। यह गरज उनकी अभि- क्षमताएं भी कही जा सकती हैं। इस तरह पिछले तीनों वाक्य किसी भी तरह से अपमानसूचक वाक्य की संरचना को प्राप्त न हो जाये इसलिए खुदही इन्हे ‘अर्थशास्त्रीय दृष्टि’ से पढ़ने की माँग किए देता हूँ। यह जितना ‘ग्लोबल’ होना है उतना ही ‘लोकल’ भी। जितना देश के अंदर है उतना ही देश के बाहर। सब अपनी-अपनी जगहों के साथ वहाँ से निकले। दिल में बसाये। एक कोने में ज़िंदा रखे। हिन्दी तब जादा अपनी लगती है जब हम इसे अपनों के बीच नहीं बोल पाते। या उन लोगों के साथ इस्तेमाल नहीं कर पाते जिनके बीच अब वे रहते होंगे। इस तरह यह भाषा इन्हे खींच रही होगी। इसे अब भाषा के प्रति प्रेम कहें या अस्तित्वमूलक ‘टैक्स्ट’।
यह चयन का मसला कभी भी नहीं रहा। यह अपने आप से जुड़ना था। उन कस्बे गाँवों शहरों की गलियों ढाबलियों गुमटियों दुकानों छज्जों की याद में कुछ देर बैठ लेना था। किसी बीते कल में अरझे रहना था। बचपन की पतंग उँगलियों में फंसे कंचों की आवाज़ को फ़िरसे सुन लेना था। शुरुवाती दिन किसी भी तरह से आसान तो बिलकुल नहीं रहे होंगे। एक ऐसे तंत्र में जिसकी नियामक भाषा अँग्रेजी हो वहाँ हिन्दी में लिख लेना अपने आप में चुनौतीपूर्ण रहा होगा। यह आज ‘यूनिकोड’ पर जितना सहज लगता है तब उतना ही उलझा देने वाला सवाल रहा होगा। कितने ही तकनीक के जानकार इसे सुलझाने में लगे होंगे।
ख़ुद को इन बीतते सालों में कोई नियमित पाठक नहीं कह सकता। जिनका लिखा यहाँ अच्छा लगता रहा है, उनके ठिकानों पर जितना भी यहाँ घूमा फिरा हूँ, उस लिहाज से एक ठीक-ठाक समझ तो बनी ही होगी। इसी पर अभी जब उस शाम आलोक से बात कर रहा था तब से एक ख़ाका दिमाग में घूम रहा है। सोचा था एक ही पोस्ट बनाऊँगा पर लगता नहीं के यहाँ उसकी गुंजाइश है। इसलिए इसे उसकी पूर्वपीठिका कह कर काम चला रहा हूँ। उसमे पूर्वाग्रह होंगे पक्षधरता होगी कुछ निजी टिप्पणियाँ होंगी कुछ छेड़ होगी। जो जैसा लगता रहा है उसे वैसा ही लिख लेने की कोशिश करूंगा। हो सकता है जिनके नाम वहाँ होंगे उन्हे अच्छा न लगे। किन्ही को किसी पर तंज़ कसने का बहाना लगे याकि कभी उन्हे पता ही न चले। कि कौन उनके बारे में क्या कह रहा है। पर संवाद होने के लिए ज़रूरी है, बात हो। यह बात बिलकुल निजी क़िस्म की होगी। पर अभी नहीं। आगे। जल्द।
और यह अंतिम अनुच्छेद किसी भी तरह से उस पोस्ट का हलफ़नामा न माना जाए।
ख़ुद को इन बीतते सालों में कोई नियमित पाठक नहीं कह सकता। जिनका लिखा यहाँ अच्छा लगता रहा है, उनके ठिकानों पर जितना भी यहाँ घूमा फिरा हूँ, उस लिहाज से एक ठीक-ठाक समझ तो बनी ही होगी। इसी पर अभी जब उस शाम आलोक से बात कर रहा था तब से एक ख़ाका दिमाग में घूम रहा है। सोचा था एक ही पोस्ट बनाऊँगा पर लगता नहीं के यहाँ उसकी गुंजाइश है। इसलिए इसे उसकी पूर्वपीठिका कह कर काम चला रहा हूँ। उसमे पूर्वाग्रह होंगे पक्षधरता होगी कुछ निजी टिप्पणियाँ होंगी कुछ छेड़ होगी। जो जैसा लगता रहा है उसे वैसा ही लिख लेने की कोशिश करूंगा। हो सकता है जिनके नाम वहाँ होंगे उन्हे अच्छा न लगे। किन्ही को किसी पर तंज़ कसने का बहाना लगे याकि कभी उन्हे पता ही न चले। कि कौन उनके बारे में क्या कह रहा है। पर संवाद होने के लिए ज़रूरी है, बात हो। यह बात बिलकुल निजी क़िस्म की होगी। पर अभी नहीं। आगे। जल्द।
और यह अंतिम अनुच्छेद किसी भी तरह से उस पोस्ट का हलफ़नामा न माना जाए।
likho....
जवाब देंहटाएंलिख दिया जी..मौका लगे तो देखना। लिंक नीचे है।
हटाएंअच्छी कलम है , दुबारा पढ़ने को मज़बूर करती हुई !
जवाब देंहटाएंबधाई !!
थकना नहीं यहाँ !!
:)
जी, कोशिश है लगातार लिखते रहने की। देखते हैं, कब तक ठीकठाक लिखने के क़ाबिल बने रहते हैं।
हटाएंराहगीर के लिए चलने-चलाने में चयन का मसला खास नहीं है, चाहे वह पहला राही हो या उसके पहले हज़ार और गुजरे हों, हमसफर न हो या बहुतेरे हों। हाँ, पहाड़ काटकर या आकाश चीरकर रास्ता बनाने वालों की बात और है जो श्रेय के लेनदेन से अलग कोई और नई राह बना रहे होते हैं।
जवाब देंहटाएंमामला इतना सरल, सहज और आसान दिखाई देता है, पर है नहीं। 'राहगीर' बनने की 'कुव्वत', 'हिम्मत', 'कौशल', 'प्रतिभा' किसमें नहीं है, मामला 'अवसर' का है। इस संदर्भ में अवसर एक तंत्र में पैठ ही है। जिसके अवसर सभी को उसी अनुपात में नहीं मिलते, जैसे आपको और हमें मिले। यह अवसर मिलना, अर्जित करना भी हो सकता है और उन सामाजिक सांस्कृतिक पूंजी द्वारा प्रदत्त भी।
हटाएंहम इतनी लक्षणा और व्यंजना में बात क्यों कर रहे हैं, समझ नहीं आ रहा। क्या है जिसे नहीं कहना है और क्या है जिसे कहने से चीज़ें टूट बिखर जाएंगी। कौन पहाड़ काट रहा है, बिहार का दशरथ माँझी? उसे कोई जानता भी नहीं था, एनसीईआरटी की किताबों में आने से पहले। जीतन राम माँझी के कहने से वे पार्टी में आते हैं और विलुप्त हो जाते हैं। शायद यह विषयांतर है या हो सकता है कोई सूत्र जिसे आप स्पष्ट करना चाहते होंगे।
ख़ैर, आपने ख़ूब श्रमसाध्य काम किया, इसके लिए साधुवाद। पर रास्ता चुनने की आज़ादी आपकी ही थी। आप मेढ़ पर नहीं चले, तकनीक के सहारे 'हायपर मॉडर्निटी' के 'औज़ारों' से ख़ुद को स्थापित कर रहे थे। उन साधनों पर आपकी पहुँच हमसे काफ़ी पहले थी। फ़िर भी मसला ख़ास नहीं है, समझ नहीं आता।
आशा है आप सालभर बाद हो रहे इस संवाद को अन्यथा नहीं लेंगे, उन संदर्भों को विषयगत स्पष्टता के लिए कहना ज़रूरी था। अगर आपको लगता है, कुछ अतार्किक है तो बातचीत के लिए मंच खुला है और इस बार कुछ जल्दी उत्तर देने का प्रयास करूंगा।
-आपका साथी।
बहुत अच्छा है
जवाब देंहटाएंशायद कुछ दिमाग में
भी घुसा है
लिखते रहिये !
बिलकुल। आशा है, यहाँ आपके दिमागी पेचोखम का दुरुस्त इलाज़ भी चल सकता है। बस हम 'तसल्लीबक्श काम' करने का बोर्ड ज़रा चुना मंडी से कल लेते आयें।
हटाएंअभी अभी ब्लॉगिंग के दस सालों पर लिखा है। लिंक दिये दे रहा हूँ। कहाँ क्या कुछ रह गया बताते चलिएगा, तो ठीक रहेगा।
जवाब देंहटाएंलिंक: http://karnichaparkaran.blogspot.in/2014/01/blog-post_7.html