चाहते न चाहते इसकी अपनी सीमाएँ हैं, जिनके बीच यह बनता-बिगड़ता रहा । यह ख़ुद को बिना किसी खाँचे गढ़ते रहने की तरह था। कुछ-कुछ मेरे अवचेतन के खुले पन्नों की किताब की तरह। कितना छटपटाता रहा इससे छूट जाने के लिए.. यह मेरी व्यक्तिगत सीमाओं और मेरे मन से कितना बाहर जाता रहा, कभी महसूस नहीं कर पाया। बस अंदर ही अंदर लगता वही लिखुंगा जो मन करेगा। तभी लिखुंगा जब मन करेगा। कभी-कभी यह भी लगता, मुझसे बड़ा नाम इस ‘ब्लॉग’ का नाम है। मेरा मन इसके नीचे कहीं दब गया है।
हमेशा इस जगह को निजी बना लेने को लेकर सचेत रहा। पर मेरे सोचने से भी क्या होने वाला था ? इन सालों में जैसा होता गया, यह उसी तरह के बेरंग रंगों में रंगता गया। मैं ढूँढ़ता रहा अपनी तरह के लोग। कुछ ऐसे जिनमें कुछ-कुछ छूटा रह जाता। फ़िर कभी मिलते, फ़िर कुछ छूट जाते। कुछ छूटने, कुछ मिलने में ज़िन्दगी कुछ-कुछ चलती रहती।
असल में कोई मिलना नहीं था। पर कोई नहीं मिला, ऐसा नहीं है। यहाँ लिखने के दिन शुरू ही हुए थे, तब जनसत्ता में कभी-कभी उदय प्रकाश अपने ब्लॉग के साथ मिल जाते। चन्दन पाण्डे ‘रिवॉल्वर’ लिख चुके थे, ‘भूलना’ लिखने की तय्यारी में थे। हम भी कभी जनसत्ता के पन्नों होंगे, कभी सोचा न था। सत्रह फरवरी दो हज़ार ग्यारह, यही तारीख़ थी जब मेरी पहली पोस्ट आई। तब ब्लॉग था ही कितना पुराना? लिखते हुए तीन महीने हुए थे और कुल पंद्रह पोस्ट थीं। मैंने सिर्फ़ एक ईमेल भेजा था।
आज तक नहीं पता, उस मेल को वहाँ दफ़्तर में किसने देखा होगा? पता नहीं उन्होने क्या सोचकर वह पोस्ट वहाँ लगाई होगी? आज तक वे मेरे लिए अनाम हैं। उन्हे जान नहीं पाया। शायद उनकी ताकत ऐसे ही सामने न आने में है।
पता नहीं वह कैसे क्षण थे? उन क्षणों को लिखते याद करते मेरी आँखें धुँधलाती जा रही हैं। मैं चीख़ चीख़कर चिल्लाना चाहता था। कहीं छिपकर थोड़ी देर रोना चाहता था। चेहरे पर उन आँसुओं की बनी लकीरों को आईने में देखना चाहता था। उस दिन लगा बिन किसी को जाने, मैं भी वहाँ हो सकता था। यह जो एहसास था, उसे आज तक अपने अंदर महसूस करता रहा हूँ।
अगर जनसत्ता का यह ‘कॉलम’ न होता, तो शायद उन हताश परेशान दिनों में कब का पीछे छूट जाता। कहीं गुम हो जाता। चुप हो जाता। वहाँ बने रहना पीछे आँगन में ठंडे दिनों में लहलहाते सरसो के बीच उकड़ू गर्दन छिपाये बैठे रहने की तरह है।
असल में कोई मिलना नहीं था। पर कोई नहीं मिला, ऐसा नहीं है। यहाँ लिखने के दिन शुरू ही हुए थे, तब जनसत्ता में कभी-कभी उदय प्रकाश अपने ब्लॉग के साथ मिल जाते। चन्दन पाण्डे ‘रिवॉल्वर’ लिख चुके थे, ‘भूलना’ लिखने की तय्यारी में थे। हम भी कभी जनसत्ता के पन्नों होंगे, कभी सोचा न था। सत्रह फरवरी दो हज़ार ग्यारह, यही तारीख़ थी जब मेरी पहली पोस्ट आई। तब ब्लॉग था ही कितना पुराना? लिखते हुए तीन महीने हुए थे और कुल पंद्रह पोस्ट थीं। मैंने सिर्फ़ एक ईमेल भेजा था।
आज तक नहीं पता, उस मेल को वहाँ दफ़्तर में किसने देखा होगा? पता नहीं उन्होने क्या सोचकर वह पोस्ट वहाँ लगाई होगी? आज तक वे मेरे लिए अनाम हैं। उन्हे जान नहीं पाया। शायद उनकी ताकत ऐसे ही सामने न आने में है।
पता नहीं वह कैसे क्षण थे? उन क्षणों को लिखते याद करते मेरी आँखें धुँधलाती जा रही हैं। मैं चीख़ चीख़कर चिल्लाना चाहता था। कहीं छिपकर थोड़ी देर रोना चाहता था। चेहरे पर उन आँसुओं की बनी लकीरों को आईने में देखना चाहता था। उस दिन लगा बिन किसी को जाने, मैं भी वहाँ हो सकता था। यह जो एहसास था, उसे आज तक अपने अंदर महसूस करता रहा हूँ।
अगर जनसत्ता का यह ‘कॉलम’ न होता, तो शायद उन हताश परेशान दिनों में कब का पीछे छूट जाता। कहीं गुम हो जाता। चुप हो जाता। वहाँ बने रहना पीछे आँगन में ठंडे दिनों में लहलहाते सरसो के बीच उकड़ू गर्दन छिपाये बैठे रहने की तरह है।
पर आज मन कर रहा है, यहाँ से कहीं भाग जाऊँ। कहीं किसी नए नाम से, नयी जगह पहुँच जाऊँ। मन करता है, ‘महाबीर भाटी’ की तरह ट्रक चलाते-चलाते, किसी सुनसान जगह पर अपना घर बनाऊँ। इस चारदीवारी में जब-जब मैंने कुछ और लिखना चाहा, वह इसके बने बनाए ढाँचे में अपने आप ढलता गया। यह इसकी सबसे बड़ी सीमा बनती गयी, जिसे चाहते हुए भी तोड़ नहीं पाया। इन बीते सालों में सारी स्थापित संरचनाओं को लगातार तोड़ता रहा इसलिए आज इस संरचना को भी तोड़ रहा हूँ। जा रहा हूँ।
सोचता हूँ, जब हम कहीं के लिए चले नहीं थे, हमें कहीं पहुँचना नहीं था; तब इसे बंद करने में किसी भी तरह सोचना बेकार है। शायद इसी किसी अनाम मुकाम पर पहुँचकर इसे रुक जाना था। जो किसी परिभाषा में अटता न हो। जिसे कोई किसी भी तरह से बंद करने लायक स्थिति न कहता हो, वहीं आकर रुक जाना, किसी को असहज स्थिति नहीं लगनी चाहिए। यहाँ रुके रहने ख़ुद को दोहराए जाते रहने पर यह कोई ‘कल्ट ब्लॉग’ नहीं बनने वाला। अंदर से कहीं लगता है, जाने का यह सबसे सही वक़्त है।
फ़िर हम कौन-सा बहुत बड़ा मकसद लेकर चले थे कि कहीं पीछे छूट जाएँगे? यहाँ अब ठहरने का मन नहीं है, तो नहीं है..यहाँ और नहीं ठहरे रहना चाहता। सागर, इसतरह मैं जा रहा हूँ। अपनी पाँच साल वाली मोहोलत भी पूरी नहीं कर पाया। बस इसका आख़िरी सपना एक किताब का था, वह अभी भी यहीं कहीं किसी पन्ने के नीचे दबा रह गया होगा। उसे ढूँढ़कर बचाए रखना है।
पर सवाल है, क्या इसे बंद कर नए पते पर जा रहा हूँ? अभी नहीं पता। अभी कोई नाम नहीं ढूँढ़ा है। कोई टैगलाइन नहीं है। नए पते पर जा भी रहा हूँ या नहीं, यह भी नहीं पता। आगे क्या करूँगा? नहीं जानता। अभी भी पता नहीं कितनी पोस्टें ‘ड्राफ़्ट’ में रखी हुई हैं। उन्हे कभी पूरा ही नहीं कर पाया। पता नहीं कितने दिन, महीने, साल इस नाम से छूटने में लग जाएँ? लेकिन मुझे पता है, इस ‘न्यू मीडिया’ के ‘पावर स्ट्रक्चर ’ में मैं कहीं नहीं ठहरता। मेरी कोई पहचान नहीं है। मुझे जानते ही कितने लोग हैं? लोग यहाँ उन्हे ही जान रहे हैं, जिन्हे वह पहले से जानते हैं। यही इस माध्यम की सबसे बड़ी कमज़ोरी है। जिससे पार पाना इतना आसान नहीं।
इतना होने पर भी हो सकता है, कहीं और लिखने लगूँ, तब उसमें और इसमें कोई अंतर ही न दिख पाये। पर अब इस जगह की घुटन से और घुटना नहीं चाहता। थकने लगा हूँ। साँसें भारी हो जाती हैं। चला नहीं जाता । अब ख़ुद से और हारना नहीं चाहता।
सोचता हूँ, जब हम कहीं के लिए चले नहीं थे, हमें कहीं पहुँचना नहीं था; तब इसे बंद करने में किसी भी तरह सोचना बेकार है। शायद इसी किसी अनाम मुकाम पर पहुँचकर इसे रुक जाना था। जो किसी परिभाषा में अटता न हो। जिसे कोई किसी भी तरह से बंद करने लायक स्थिति न कहता हो, वहीं आकर रुक जाना, किसी को असहज स्थिति नहीं लगनी चाहिए। यहाँ रुके रहने ख़ुद को दोहराए जाते रहने पर यह कोई ‘कल्ट ब्लॉग’ नहीं बनने वाला। अंदर से कहीं लगता है, जाने का यह सबसे सही वक़्त है।
फ़िर हम कौन-सा बहुत बड़ा मकसद लेकर चले थे कि कहीं पीछे छूट जाएँगे? यहाँ अब ठहरने का मन नहीं है, तो नहीं है..यहाँ और नहीं ठहरे रहना चाहता। सागर, इसतरह मैं जा रहा हूँ। अपनी पाँच साल वाली मोहोलत भी पूरी नहीं कर पाया। बस इसका आख़िरी सपना एक किताब का था, वह अभी भी यहीं कहीं किसी पन्ने के नीचे दबा रह गया होगा। उसे ढूँढ़कर बचाए रखना है।
पर सवाल है, क्या इसे बंद कर नए पते पर जा रहा हूँ? अभी नहीं पता। अभी कोई नाम नहीं ढूँढ़ा है। कोई टैगलाइन नहीं है। नए पते पर जा भी रहा हूँ या नहीं, यह भी नहीं पता। आगे क्या करूँगा? नहीं जानता। अभी भी पता नहीं कितनी पोस्टें ‘ड्राफ़्ट’ में रखी हुई हैं। उन्हे कभी पूरा ही नहीं कर पाया। पता नहीं कितने दिन, महीने, साल इस नाम से छूटने में लग जाएँ? लेकिन मुझे पता है, इस ‘न्यू मीडिया’ के ‘पावर स्ट्रक्चर ’ में मैं कहीं नहीं ठहरता। मेरी कोई पहचान नहीं है। मुझे जानते ही कितने लोग हैं? लोग यहाँ उन्हे ही जान रहे हैं, जिन्हे वह पहले से जानते हैं। यही इस माध्यम की सबसे बड़ी कमज़ोरी है। जिससे पार पाना इतना आसान नहीं।
इतना होने पर भी हो सकता है, कहीं और लिखने लगूँ, तब उसमें और इसमें कोई अंतर ही न दिख पाये। पर अब इस जगह की घुटन से और घुटना नहीं चाहता। थकने लगा हूँ। साँसें भारी हो जाती हैं। चला नहीं जाता । अब ख़ुद से और हारना नहीं चाहता।
हो सकता है, जितनी बातें सोचकर चला था, उतनी कह नहीं पाया। जिस तरह उन्हे कहा जाना चाहिए था, वह वैसी नहीं उतर पायीं हों। उन सबको कहते हुए कुछ छूटी रह गयी होंगी। पर अभी के लिए बस अलविदा। मिलेंगे कहीं किसी मोड़ पर..!!
इस ऑडिओ में आवाज़ मेरी नहीं है, पर इसे कहने वाला मैं ही हूँ। वैसे बहरूपिये तो हम शुरू से हैं। कभी नहीं बताया हम कौन हैं?
हो सकता है, महीनों किसी नए पते के साथ वापस न लौटूँ। या इसकी भी संभावना है कि कल ही यहाँ उस नए घर का पता इसी जगह लिंक लगाकर छोड़ जाऊँ। पता नहीं मन में क्या-क्या एकसाथ चल रहा है। फ़िलहाल इतना ही कि तीन पोस्टों को ‘बैकडेट’ में यहाँ ज़रूर लगाऊँगा। उनका होना मेरे न होने जितना ज़रूरी है। फ़िर उनके बिना मन भी तो नहीं मानेगा न।
(अट्ठाईस दिसंबर, रात दो बजे के बाद नींद और ठंड के बीच उबासी लेते, पैरों में मोज़े पहनते हुए..)
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