यह त्रासदी शुरू हुई उनके बीमार होने से। उनकी तबीयत अपने ससुराल में ही बिगड़ने लगी। कोई नहीं पहचान पाया, क्या बात है? मौसा की तरफ़ लोगों ने हाथ खड़े कर दिये। नाना जैसे-तैसे मौसी को घर ले आए। अब शुरू हुई उनकी अंतहीन यात्रा। वह ठीक से खड़ी भी नहीं हो पातीं। चलना तो दूर की बात रही। पूरा पूरा दिन लेटे रहना। उन्हे ऐसा देख नानी का रो रोकर बुरा हाल। उनकी देवरानी पता नहीं इस पूरी तस्वीर में कहीं किसी भूमिका में दिखाई नहीं देतीं। न कभी मम्मी या किसी ने हमें बताना ठीक समझा। ख़ैर, जो भी घर आता, यही कहता ऊपरी चक्कर है। किसी ने कुछ कर दिया है। इसके बाद जो जहाँ कहता, नाना अपने कंधों पर लाद अपनी बिटिया को वहाँ तक ले जाते। झाड़-फूँक, ताबीज़, जड़ी बूटियाँ, भभूत और पता नहीं क्या-क्या। पर किसी के पकड़ में वह बीमारी नहीं आई, जिसके कारण मौसी की हालत दिन-पर-दिन बिगड़ती जाती। वह सूखकर काँटा होती रहीं। गुलाब का नहीं काँटा नहीं। नागफनी का। नुकीला।
नाना की तबीयत भी उसी वक़्त से बिगड़नी शुरू हुई। बीमार बेटी को ससुराल वालों ने छोड़ दिया। वह मायके में सपाट चेहरे के साथ वहीं एकटक पड़ी रहतीं। वहाँ से कभी कोई पूछने या झाँकने भी नहीं आया। शायद उन सबकी रीढ़ की हड्डी उन्ही दिनों गायब हुई होगी। इस तरह सारी ज़िम्मेदारी अकेले नाना-नानी के दम पर आ पड़ी। उतरौला से लेकर बाबागंज तक। गिलौला से लेकर बहराइच, भिंगा, रामपुर, नानपरा तक। जहाँ कोई सुनी सुनाई बात कह भर देता, नाना चलने के लिए ख़ुद को राजी कर लेते। वे कभी इतने पैसे वाले नहीं रहे। जो बचत थी, वह मेलों में झंडी लगाकर, गाँव-गाँव बिसातखाने का समान बेचकर थोड़ा बहुत इकट्ठा किया, वह सब धीरे-धीरे ख़त्म होता गया। गरीबी सबसे बड़ी बीमारी बनती गयी। बाद में वह इसका भी इलाज नहीं ढूँढ पाये, यह दूसरी बात है।
इसके आगे की कहानी तथ्यों पर नहीं सुनी-सुनाई बातों को एक के साथ एक जोड़कर बुनते हुए कुछ इसतरह बन पायी। पता चला हमारी मौसी की सास को जादू-टोने में महारथ प्राप्त थी और उन्होने ही कोई दवाई खाने के लिए दी। तबसे उस बीमारी ने उन्हे घेर लिया। इधर वह घर छोड़कर गईं, उधर उन्होने अपने लड़के की दूसरी शादी की तय्यारी शुरू कर दी। सुनने में यह भी आया कि हमारे अदृश्य मौसा, कुछ ठीक भी नहीं थे। वे हमारी मौसी को ख़ूब मारते-पीटते, जिसका उनकी तबीयत ख़राब होने में बहुत बड़ा योगदान रहा। उनके कोमल मन पर पता नहीं क्या हुआ? इसलिए भी शायद वह कभी ठीक ही नहीं हो पायीं। मौसी की यह हालत देखकर नाना के दिमाग ने भी अचेत होना शुरू कर दिया। चलते-चलते कहीं भी रुक जाते। कभी रास्ता भूल जाते। जो चलने में कभी थकते नहीं थे, एकबार में बीस-बीस कोस नाप जाते, अब कोस भर में ही हाँफने लगे। यह उनके बिना किसी तय्यारी, हारने की तय्यारी थी। एक कमज़ोर-सी हार।
एकदिन ऐसी ही किसी अनाम-सी दुपहरी में हमारी मौसी हमेशा के लिए चली गईं। मम्मी कभी अपनी बहन का चेहरा दोबारा नहीं देख पाईं। दिल्ली, सेवढ़ा से बहुत दूर हमारे घर में पड़ती थी। और वह वक़्त पर पहुँच नहीं पायीं। आज भी कभी-कभी उन्हे यादकर उनकी आँखें भर आती हैं। तब से लेकर आजतक मम्मी ने उन अदृश्य मौसा की परछाईं भी हम पर पड़ने नहीं दी। सामने आए भी होंगे, तब भी बताया नहीं। कितने सपने बुने होंगे हमारी मौसी ने। नाना-नानी ने। सब एकएक कर मिट गए। यह नानीघर बिखरने की पहली किश्त थी। उनके हिस्से अभी और भी बहुत सारे दुख लिखे थे। ऐसे दुख जो कहीं किसी को दिखाई नहीं दिये। अभी, आज, उन्हे कहने नहीं जा रहा। ऐसे सब कह देना भी तो ज़रूरी नहीं। हिम्मत जो होनी चाहिए, वह सोच सोचकर कम होती जाती है। आज ऐसे ही कह गया। कुछ था मन में।
इसका हमारे छोटे-छोटे मनों पर तब क्या असर हुआ कह नहीं सकता। बस एकएक कर गर्मियों के दिन ख़त्म होते जाते और छुट्टी ख़त्म होने पर जब क्लास में सब बच्चे अपने दादा-दादी, नाना-नानी के यहाँ से ढेरों कहानियाँ लेकर लौटते, तब हम सिर्फ़ इतना ही सोच पाते, काश हमारे यहाँ भी ऐसा कुछ हो पाता। हमारे नाना-नानी के यहाँ ऐसा क्यों नहीं होता। और कुछ खास नहीं। हम चुप रहकर कहीं खो जाते। कहीं गुम होना चाहते। वह भी नहीं हो पाते। हमें बस उनके यहाँ की छत याद आती और उसपर बरसात के वक़्त पड़ रही बूँदें दिखती।
{तारीख़ चार जुलाई, साल यही। शायद नेहा उन दिनों यहीं रही होगी। पापा ने मम्मी को यह पन्ना दिखाया भी होगा या नहीं, पता नहीं। यहाँ इसमें जो लिखा है, सच भी है यह नहीं; मालुम नहीं। ख़ैर, जगह वही जनसत्ता में समांतर, शीर्षक: मौसी की याद। }
{तारीख़ चार जुलाई, साल यही। शायद नेहा उन दिनों यहीं रही होगी। पापा ने मम्मी को यह पन्ना दिखाया भी होगा या नहीं, पता नहीं। यहाँ इसमें जो लिखा है, सच भी है यह नहीं; मालुम नहीं। ख़ैर, जगह वही जनसत्ता में समांतर, शीर्षक: मौसी की याद। }