खिड़की के बाहर बारिश की बूँदें लगातार छत पर गिर रही हैं। छत की फ़र्श पर नयी बूँद आते ही पुरानी अपने अस्तित्व को बचाने की जद्दोजहद में लग जाती है। उन बूँदों को पता है, जब बौछार तेज़ हो जाएँगी तब इस संघर्ष का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। मौसम इतना पानी गिरने के बाद भी ठंडा नहीं है। इस बारिश का, इस ठंडक के न होने का, छत पंखे के लगातार सिर के ऊपर घूमते रहने का इस पंद्रह अगस्त की ढलती शाम पर कोई मतलब नहीं है। यह बातें किसी और दिन भी कही जा सकती हैं। यह साधारण-सी दिखने वाली बारिश भी किसी भी दिन कभी भी हो सकती है। मैं भी यहाँ क्यों आकर बैठ गया हूँ? पता नहीं। शायद गाँधी याद आ गए। राजघाट पहुँचने से पहले उनकी शवयात्रा राजपथ से गुज़र रही है। लोग इंडिया गेट पर जमघट लगाए इंतज़ार कर रहे हैं।
गूगल आज उनकी 1930 की
दांडी यात्रा को याद कर रहा है। सुधीर चंद्र की
किताब बताती है, गाँधीजी को पता है, कुछ लोग उन्हे मार देना चाहते हैं। वे कई बार सार्वजनिक मंचों पर इस बात को स्वीकार भी कर चुके हैं। सन् सैंतालीस में आज के दिन वे नोवाखली में हैं। देश का बँटवारा हो चुका है। सांप्रदायिक दंगों से देश में अजीब-सा तनाव फैला हुआ है। हम आजाद भी हुए और एक ही दिन बंट भी गए। लोग बदहवास से अपने दिलों के दर्द को सहेजने को कोशिश में कुछ भी समझने लायक नहीं रह गए होंगे। बेतहाशा भीड़, बंट चुके लोग उन्नीस सौ ग्यारह में राजधानी बनी इस दिल्ली में अनगिन उम्मीदों के साथ डटे रहे। उनके पास अपनी आँखों में आजादी के सपने को साँसों में माँस फट जाने के बाद, ख़ून की गंध को फेफड़ों में महसूस करते शरणार्थी शिविरों में गर्दन झुकाये बैठे रहने के अलावे कोई चारा नहीं था। भीष्म साहनी
आज के अतीत में लिखते हैं, वह अपने बड़े भाई बलराज के साथ पंद्रह अगस्त के दिन दिल्ली में थे। आज़ाद मुल्क के पहले प्रधानमंत्री सबके सामने तिरंगा लहराने वाले हैं। कहते हैं देवानंद भी उस दिन लाल किले के सामने इकट्ठा हुई भीड़ में शामिल थे।
वहीं किसी टेंट में सिर छिपाने की जगह ढूँढ़ते मनोहर श्याम जोशी के नाटक
बुनियाद के मास्टर हवेलीराम भी हैं और गोविंदपुरा, मुल्तान से आए
मिल्खा सिंह भी। इन दोनों की तरह सब किसी कोने में छिपे हुए से अपने सपनों के सच होने का इंतेज़ार कर रहे थे। इन सबका नया मुल्क बनने वाला था, लेकिन उनमें से कोई साबुत नहीं था। सब कच्ची मिट्टी की सुराही के आँच में पकने से पहले ही बिखर गए थे।
हम भी इस विभाजन की त्रासदी को कभी नहीं जान पाते, अगर हमने कभी खुशवंत सिंह की औपन्यासिक कृति
पाकिस्तान मेल को नहीं पढ़ा होता। मनो माजरा आज भारत-पाकिस्तान की सीमा से उठकर हमारे दिलों में चला आया है। अगर ऐसा ही चलता रहा तब हम सब एक दिन
टोबा टेकसिंह हो जाएँगे। हमारा दिल, दिमाग हो जाएगा। दिल सोचता नहीं है, बस महसूस करता है। तब हम कुछ नहीं समझ पाएंगे हमारे सामने, हमारे देश को यह क्या हो रहा है? हम अगर ख़ुद को बेहतर इंसान बनाना चाहते हैं, तब हमें
तमस और
आधा गाँव के साथ इंतज़ार हुसैन के उपन्यास
उदास नस्लें साथ रखकर अपने आसपास बनी इस जटिल दुनिया को देखना शुरू करना होगा। कबीर खान की बजरंगी भाईजान से काफ़ी साल पहले श्याम बेनेगल ने एक फ़िल्म बनाई,
मम्मो। इसे देखे बिना हम इस उपमहाद्वीप की सबसे बड़ी त्रासदी को रत्ती भर भी नहीं समझ सकते। कैसे जड़ें छूटे नहीं छूटती। दिल टूट जाता है, पर कोई वापस नहीं लौट पाता। हमारी सबसे बड़ी दिक्कत शायद यह है कि हम इसे समझना ही नहीं चाहते। समझते हुए न समझने का हुनर हम सबने बड़े करिने से सीखा है।
मुझे नहीं पता हमारे साथ बड़ी हो रही यह पीढ़ी कैसे अपनी आज़ादी को गढ़ेगी? उनके लिए इसके क्या मायने होंगे? कभी-कभी मैं यह भी नहीं समझ पाता कि उन्हे दुख भरे विभाजन के दिनों के निशान किस तरह दिखाई देंगे। वह सब शायद इसे
उर्वशी बुटालिया की
किताबों से जानेंगे। या कभी मन हुआ तो मुनव्वर राणा के
मुहाज़िरनामा से।
लेकिन उसकी सघनता तब शहादरा जैसी पुनर्वास कॉलोनियों में कैसी बची रह पायी होगी, पता नहीं। सच, ख़ुद बचपन से दिल्ली में रहते हुए आज तक शाहदरा नहीं जा पाया। खन्ना जी कभी उन दिनों में वापस नहीं लौटना चाहते। वह कभी नहीं बताएँगे। चाहकर भी नहीं बता पायेंगे। हम सब चाहकर भी उस दर्द को कुरेदने से बचना चाहते हैं। लेकिन हमें यह पता है, इस त्रासदी को दीपा मेहता की फ़िल्म
मिडनाइट चिल्ड्रन से पहले दीपा मेहता की
1947अर्थ, अनिल शर्मा की सतही समझ वाली
गदर से काफ़ी जटिल कथानक को अपने भीतर छिपाये हुए है। उसकी कथा एक सिरे से गुजरते हुए दूसरी गाँठ पर खुलती उसकी त्रासद अभिशप्तता को उघाड़ती चलती है। तब पता चलता है, शांता की आँखें क्यों उस दिन दिलनवाज़ की आँखों में उस खौफ़ को पहली बार महसूस करती हैं। यह पहली बार बदलना इतिहास में सब कुछ बदलकर रख देता है। तब से हम कुछ नहीं कर पाये।