"नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता को अन्य धर्मों का स्थान लेने वाले नागरिक धर्म की तरह कभी नहीं लिया। वे धर्म को मिला कर सभी भारतवासियों पर धर्मनिरपेक्ष पहचान का ठप्पा लगाने और इस तरह समाज पर एक नई नैतिकता थोपने के पक्ष में कतई नहीं थे। उन्हें भारत में धार्मिक विश्वासों की गहनता और बहुलता का पूरी तरह अहसास था। दरअसल, इसी वजह से उन्हें धार्मिक-सामाजिक अस्मिताओं को राजनीति के दायरे से बाहर रखने पर यकीन हो गया था। उन्होने अपनी शक्ति धर्मनिरपेक्षता का मत स्थापित करने पर कभी ख़र्च नहीं की। उनकी कोशिश तो धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल को रोकने की ही रही। इसी को वे 'सांप्रदायिकता' कहते थे।"
किताब: भारतनामा: सुनील खिलनानी, पन्ना एक सौ इक्यानवे
{फेसबुक स्टेटस, बीस सितंबर, लगभग तीन बजे· नयी दिल्ली }
{फेसबुक स्टेटस, बीस सितंबर, लगभग तीन बजे· नयी दिल्ली }
2.
गोपाल मेरे दोपहर में लगाए गए स्टेटस से कुछ असहमत हैं। उनके लिए। किताब वही है, पन्ना एक सौ सत्तानवे।
"गाँधी और नेहरू के राष्ट्रवाद ने न केवल धर्मों का आवाहन करने से, वरन राष्ट्र को बहुसंख्यक समुदाय की भाषा में पारिभाषित करने से सोच-समझ कर परहेज किया था।" लेकिन, "बहुसंख्यकों के लोकतन्त्र का तर्क जैसे-जैसे फैला, वैसे-वैसे कॉंग्रेस के प्रतिद्वंदियों को भी राष्ट्र की नुमाइंदगी का दावा करने का मौका मिला। ख़ासतौर से बहुसंख्यक लोकतन्त्र ने हिन्दू राष्ट्रवादियों को उभरने का अवसर दे दिया।" यह बहुलतावादी राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद के बीच एक द्वन्द्वात्मक स्थिति है।
{ बीस सितंबर, सात बजकर पाँच मिनट· नयी दिल्ली }