
लेकिन आज यह दरवाजा खुल जाएगा। आज इसमें हम रहने आ रहा है। ऐसा सोचकर वह दोनों ठिठक गए। ठिठक गए एक दूसरे को इतनी पास देखकर। ऐसे होते हुए दोनों ने एक-दूसरे को एकबार फ़िर देखा। यह इस शहर में उन दोनों की एक साथ पहली रात है। अब यह अँधेरा कमरा उन दोनों के लिए घर था। चुप घर।
वह दो थे। ज़ोर लगाकर जैसे ही दोनों दरवाज़ा खोलकर अंदर घुसे, फ़र्श पर बिखरा बरसात का पानी किसी तालाब में तैरते हुए कछुए की तरह पैरों में लगा। वह एकदम डर गयी। घबराहट उसके सीने से होती हुए उसकी काँख में कहीं गुम हो गयी। उसने फिल्मों से सीखा था, ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए। ऐसा सोचते हुए वह डरकर उससे चिपक जाती। लेकिन इससे पहले कुछ और सोचकर वह पिछले दरवाज़े तक गयी। जैसे उसे कुछ याद आया। वहाँ पीछे लकड़ी की अलमारी में लगी दीमक उसे खाने की कोशिश में पिछले कितने सालों से लगी हुई हैं, वह अंदाज़ा नहीं लगा सकी। वापिस आकर सिर झुकाए वहीं पीढ़े पर बैठ गयी। अंदाज़ उसे इस बात का भी नहीं, वह अब कहाँ है। वह भी जो उसके साथ था, वह पीढ़े के बचे हिस्से पर बैठने की सोचकर पास ही गर्दन झुकाये उकड़ू बैठा रहा। दोनों चुप हैं।
कभी लगता यह चुप्पी दीवारों से टकराकर इन तक आती और कभी इनसे टकराकर दीवारों तक जाती। इस तरह इनका चुप रहना शुरू हुआ। दोनों पूरा दिन सिर झुकाये चुप रहते। उनकी गर्दन में दर्द बिलकुल नहीं होता। यह झुकी गर्दन एक सहमति भी होती। दोनों एक-दूसरे से जितनी बात नहीं करते, उससे जादा गर्दन देखकर समझ जाते। खाना है, यह पूछना नहीं पड़ता। नमक ठीक है। एक और रोटी लोगे। थोड़ा चावल ले लो। यह अनकहे संवाद बिन कहे सब कह देते। तुम भी खालो अब। लो, एक रोटी मेरे पास जादा है। ले लो, यह चावल भी बच गया। अचार तो तुमने लिया ही नहीं। लो लसुन वाला, कटहल का तो ख़त्म हो गया। असल में दोनों अपने माता-पिता की बात न मानने के ज़ुर्म में घर से निकाल दिये गए थे। तभी से उनकी गर्दन झुक गयी और घर से बहुत दूर यह घर, उनका चुप घर बन गया।
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