जब हम सब खाना खा लेते हैं, तब सोचने लगता हूँ कि वह जल्दी से बर्तन माँज लें और हम दोनों हर रात कहीं दूर निकल आयें। हम दोनों की बातें पूरे दिन इकट्ठा होती गईं बातों के बीच घिरकर, झगड़ों के बगल से गुज़रकर सपनों के उन चाँद सितारों में कहीं गुम हो जातीं। हर रात ऐसा ही होना लिखता रहता। लिखता रहता उन सपनों का होना। उनका नींद में होना। रातरानी की महक जैसे। सुरमई चाँदनी की रौशनी की तरह। कहीं बैठे रहें घंटों। अकेले। कमरे के अंदर। खिड़की के पार।
पर वह थोड़ी थक जाती हैं। थकना कभी इंची टेप से मापा नहीं, पर वह इसे थोड़ा ही कहती रही हैं। बिलकुल हमारी माँ की टू-कॉपी। वक़्त इस तरह हरबार रसोई में ख़ुद को दोहराता रहा। चाहे हम देखें या न देखें। फ़िर सब कहते भी हैं, लड़कों को अपनी मम्मी नहीं शादी के बाद बीवी ही नज़र आती हैं। शायद सब सच ही कहा करते होंगे। पर दोनों को पूरे दिन की भागादौड़ी के बाद कभी यहाँ आकर इस किताब को पढ़ने की फ़ुरसत उन्हे कहाँ? दोनों एक-दूसरे की आँखों में सब पढ़ते रहे हैं।
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी...
आप ने लिखा...
कुठ लोगों ने ही पढ़ा...
हमारा प्रयास है कि इसे सभी पढ़े...
इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना....
दिनांक 21/10/2015 को रचना के महत्वपूर्ण अंश के साथ....
पांच लिंकों का आनंद पर लिंक की जा रही है...
इस हलचल में आप भी सादर आमंत्रित हैं...
टिप्पणियों के माध्यम से आप के सुझावों का स्वागत है....
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
कुलदीप ठाकुर...
शुक्रिया।
हटाएंप्यार में ऐसा भी होता है
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति
जी, हम सबका अलग-अलग अनुभव रहे। पर वह कहीं से भी हो जाता है। पता चले न चले।
हटाएंइतनी व्यस्तताओं में भी इन एहसासात , इन कोमल जज़्बात को सहेजे हुए हैं यह काबिल-तारीफ़ है ।
जवाब देंहटाएंआज की सुबह सार्थक हो गई आपके यहां आ'कर …शुक्रिया !
हार्दिक शुभकामनाएं … … …
इन एहसासों से ही तो ज़िंदगी है। यह न हों, तो जीना बेकार..
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