तब कुछ सोचकर पहले उसने कहा। फ़िर उसने लिख दिया। एक दिन शब्द बचे रहेंगे। स्याही सूख जाएगी। कागज़ सुर्ख़ गुलाबी होंठों की रंगत से कहीं आगे बढ़कर पीले उदास होकर रह जाएँगे। रंगत सिर्फ़ चेहरों से नहीं उड़ती, उसके साथ उड़ती है खून में बह रही गर्मी। ठंडे खून में मौसम की ठंडक होगी। रंग होंगे पर रंगत न होगी। एक दिन उसे एहसास होगा, वह कितना गैर ज़रूरी था। यह बिन जताए इस दुनिया से चले जाने की सबसे पहली तय्यारी रही होगी। जब उसने मन में ऐसे ख़याल भर लिए होंगे, वह थोड़ा प्यास से भर आया होगा। उठा होगा। थोड़ा रज़ाई से सिर निकालकर पानी को खाली बोतल देखते हुए वापस अंदर दुबुक गया होगा। नाख़ुन कई दिन हुए नहीं काटे। नेलकटर कहाँ गया। अभी तो यहीं था। परसो। इंडियन एक्सप्रेस के नीचे। छिपा हुआ। यहीं होगा। उसने ढूँढ़कर देखा। नहीं दिखा। नहीं दिखा उसे कुछ भी।
उसने ख़ुद को गायब करने के बाद अपनी दीवार पर लिखा, 'पता लगाए कोई क्या, मेरे पते का पता..'। तब से वह गायब है, इस दुनिया से..!! सवाल है, कोई ढूँढ़ रहा है उसे? शायद थोड़ी उसकी परछाईं, वो दरवाज़े के बाहर बालकनी में खड़ी लड़की। उसकी अनकही बातें। थोड़ी खिड़की की सिटकनी। थोड़ी खिड़की ख़ुद।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार, कल 24 दिसंबर 2015 को में शामिल किया गया है।
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमत्रित है ......धन्यवाद !
शुक्रिया संजय।
हटाएं